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प्रेमाश्रम


र्मण्यता से बचने का एक साधन मिल जायगा। और यदि हमें जाति-सेवा का अनुराग नहीं तो म्युनिसिपल हाल में बैठने की तृष्णा क्यों हो। क्या इससे इज्जत होती है। सिपाही बन कर कोई लड़ने से जी चुराये, यह उमकी कीर्ति नहीं, अपमान है।

ज्ञानशंकर इन्हीं विचारों में मग्न थे कि ज्वालासिंह का बंगला आ गया। वह घोड़े पर हवा खाने जा रहे थे। साईस घोड़ा कसे खड़ा था। ज्ञानशंकर को देखते ही बड़े प्रेम से मिले और इधर-उधर की बाते करने लगे। उन्हें भ्रम हुआ कि यह महाशय अपने भाई की सिफारिश करने आये होंगे। इसलिए उन्हें इस तरह बातों मे लगाना चाहते थे कि उस मुकदमें की चर्चा ही न आवे पाये। उन्हें दयाशंकर के विरुद्ध कोई सबल प्रमाण न मिला था। यह वह जानते थे कि दयाशंकर का जीवन उज्ज्वल नहीं है, परंतु यह अभियोग सिद्ध न होता था। उनको बरी करने का निश्चय कर चुके थे। ऐसी दशा मे वह किसी को यह विचार करने का अवसर नहीं देना चाहते थे कि मैंने अनुचित पक्षपात किया है। ज्ञानशंकर के आने से जनता के संदेह की पुष्टि हो सकती थी। जनता को ऐसे समाचार बड़ी आसानी से मिल जाते है। अरदली और चपरासी अपना गौरव बढ़ाने के लिए ऐसी खबरे बड़ी तत्परता से फैलाते है। बोले, कहिए, आपके असामी सीधे हो गये।

ज्ञानशंकर-जी नहीं, उन्हें काबू में करना इतना सहज नहीं है। चाचा साहब ने उन्हें सिर चढ़ा दिया है। मैं इधर ऐसे झमेले में पड़ा रहा कि उस विषय मे कुछ करने का अवकाश ही न मिला।

ज्वालासिंह डरे कि भूमिका तो नहीं है। तुरंत पहलू बदल कर बोले, भाई साहब, मैंने यह नौकरी क्या कर ली, एक जंजाल सिर ले लिया। प्रात काल से सध्या तक सिर उठाने की फुरसत नहीं मिलती। बहुधा दस ग्यारह बजे रात तक काम करना पड़ता है। और इतना ही होता तो भुगत भी लेता, इसके साथ-साथ यह चिन्ता भी लगी रहती है कि ऊपरवाले खुश रहे। आप जानते ही है, अब की वर्षा बहुत हुई है, मेरे इलाके के सैकडों गाँवो मे बाढ़ आ गयी। खेतों का तो कहना ही क्या, किसानों की झोपड़ियाँ तक बह गयी। जमीदारों ने आधी मालगुजारी की छूट की प्रार्थना की है और यह सर्वथा न्यायानुकूल है। किंतु हाकिमों की यह इच्छा मालूम होती है कि इन दरखास्तों को दाखिल दफ्तर कर दिया जाय। यद्यपि वह प्रत्यक्ष ऐसा करते नहीं, पर हानियों की जांच में इतनी बाधाएँ डालते है कि जाँच व्यर्थ हो जाती है। अब यदि मैं जान कर अनजान बनूं और स्वच्छंदता से जांच कहें तो अवश्य ही मुझ पर फटकार पड़ेगी। लोग संदेह की दृष्टि से देखने लगेंगे। यहाँ की हवा ही कुछ ऐमी बिगड़ी हुई है कि मनुष्य इम अन्याय से किसी भांति बच नहीं सकता। अपने अन्य सहवगियों की दया देख कर बस यही इच्छा होती है कि इस्तीफा दे कर घर की राह लूं। मनुष्य कितना स्वार्य-प्रिय और कितना चापलूस बन सकता है, इनका यहाँ से उत्तम उदाहरण और कहीं न मिल सकेगा। यदि साहब बहादुर जरा-सा इशारा कर दें कि आमदनी के टैक्स की जांच अच्छी तरह की जाय नो विश्वास मानिए हमारे मित्रगण दो ही दिन में