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प्रेमाश्रम


गायत्री--मेरी खातिर से एक साड़ी ले लो।

श्रद्धा--ले कर क्या करूंगी? धरे-धरे कीड़े खायेंगे।

श्रद्धा ने यह बात कुछ ऐसे करुण भाव से कही कि गायत्रों के हृदय पर चोट सी लग गयी। बोली, कब तक यह योग साधोगी। बाबू प्रेमशंकर को मना क्यों नही लेती?

श्रद्धा ने सजल नेत्रों से मुस्कुरा कर कहा-क्या करूँ, मुझे मनाना नहीं आता।

गायत्री-मैं मना लूँ?

श्रद्धा-—इससे बड़ा और कौन उपकार होगा, पर मुझे आपके सफल होने की आशा नहीं है। उन्हें अपनी टेक है और मैं धर्म-शास्त्र से टल नहीं सकती। फिर भला मेल क्योंकर होगा?

गायत्री-प्रेम से।

श्रद्धा--मुझे उनसे जितना प्रेम है वह प्रकट नहीं कर सकती, अगर उनको जरा भी इशारा पाऊँ तो आग में कूद पड़े। और मुझे विश्वास है कि उन्हें भी मुझसे इतना ही प्रेम है, लेकिन प्रेम केवल हृदयों को मिलाता है, देह पर उसका बस नहीं है।

इतने में ज्ञानशंकर आ गये और गायत्री से बोले, मैं जरा गोपाल मदिर की और चला गया था। वहीं कुछ भक्तों का विचार है कि आपके शुभागमन के उत्सव में कृष्ण लीला करें। मैंने उनसे कह दिया है कि इसी बँगले के सामनेवाले सहन मे नाट्यशाला घनायी जाय। गायत्री का मुख-कमल खिल उठा। बोली, यह जगह काफी होगी?

ज्ञान-हाँ, बहुत जगह है। उन लोगों की यह भी इच्छा है कि आप भी कोई पार्ट ले।

गायत्री--(मुस्कुरा कर) आप लेंगे तो मैं भी लूंगी।

ज्ञानशंकर दूसरे ही दिन से रंगभूमि के बनाने मे दत्तचित्त हो गये। एक विशाल मंडप बनाया गया। कई दिनों तक उसकी सजावट होती रही। फर्श, कुर्सियां, शीशे के सामान, फूलों के गमले, अच्छी-अच्छी तस्वीरें सभी यथा स्थान शोभा देने लगीं। बाहर विज्ञापन बाँटे गये। रईसों के पास छपे हुए निमन्त्रण-पत्र भेजे गये। चार दिन तक ज्ञानशंकर को बैठने का अवकाश न मिला। एक पैर दीवानखाने में रहता था, जहाँ अभिनेतागण अपने-अपने पार्ट का अभ्यास किया करते थे, दूसरा पैर शामियाने में रहता था, जहाँ सैकड़ो मजदूर, बढ़ई, चित्रकार अपने-अपने काम कर रहे थे। स्टेज की छटा अनुपम थी। जिधर देखिए हरियाली की बहार थी। पर्दा उठते ही बनारस में ही वृन्दावन का दृश्य आँखों के सामने आ जाता था। यमुना तट के कुंज, उनकी छाया में विश्राम करती हुई गाये, हिरनो के झुड, कदम की डालियों पर बैठे हुए मोर और पपीहे--सम्पूर्ण दृश्य काव्य रम में डूबा हुआ था।

रात के आठ बजे थे। बिजली की बत्तियो से सारा मंडप ज्योतिर्मय हो रहा था। सदर फाटक पर बिजली का एक सूर्य बना हुआ था, जिसके प्रकाश में जमीन पर रेंगनेवाली चीटियां भी दिखायी देती थी। सात ही बजे से दर्शकों का समारोह होने लगा।

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