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प्रेमाश्रम


राघा–सूर्य भगवान निकल आये, पर तारे क्यो जगमगा रहे हैं?

वैद्य-प्रकाश फैलेगा तो वह स्वय लुप्त हो जायेगे।

वैद्य जी ने घरवालो को आँखो के इशारे से हटा दिया। जब एकान्त हो गया तब राधा ने मुस्कुरा कर कहा—प्रेम का धागा कितना दृढ है?

ज्ञानशंकर ने इसका कुछ उत्तर न दिया।

गायत्री फिर बोली-—आग लकड़ी को जलाती है, पर लकड़ी जल जाती है तो आगे भी बुझ जाती है।

ज्ञानशंकर ने इसका भी कुछ जवाब न दिया।

गायत्री ने उसके मुख की ओर विस्मय से देखा, यह मौन क्यों? अपना पार्ट भूल तो नहीं गये? तब तो बड़ी हँसी होगी।

ज्ञानशंकर के होठ बन्द ही थे, साँस बड़े वेग से चल रही थी। पाँव काँप रहे थे, नेत्रों में विषम प्रेरणा झलक रही थी और मुख से एक भयंकर संकल्प प्रकट होता था, मानो कोई हिंसक पशु अपने शिकार पर टूटने के लिए अपनी शक्तियों को एकाग्र कर रहा हो। वास्तव में ज्ञानशंकर ने छलाँग मारने का निश्चय कर लिया था। इसी एक छलाँग में वह सौभाग्य शिखर पर पहुँचना चाहते थे, इसके लिए महीनों से तैयार हो रहे थे, इसीलिए उन्होने यह ड्रामा खेला था, इसलिए उन्होने यह स्वाँग भरा था। छलॉग मारने का यही अवसर था। इस वक्त चूकना पाप था। उन्होने तोते को दाना खिला कर परचा लिया था, नि शंक हो कर उनके आंगन में दाना चुगता फिरता था। इन्हे विश्वास था कि दाने की चाट उसे पिंजरे में खीच ले जायगी। उन्होने पिंजरे का द्वार खोल दिया था। तोते ने पिंजरे को देखते ही चौक कर पर खोले और मुँडैरे पर उड़ कर जा बैठा। दाने की चाट उसकी स्वेच्छावृत्ति का सर्वनाश न कर सकी थी। गायत्री की भी यही दशा थी। ज्ञानशंकर की यह अव्यक्त प्रेरणा देख कर झिझकी। यह उसका इच्छित क्रम न था। वह प्रेम का रस-पान कर चुकी थी, उसकी शीतल दाह और सुखद पीड़ा का स्वाद चख चुकी थी, वशीभूत हो चुकी थी, पर सतीत्व-रक्षा की आन्तरिक प्रेरणा अभी शिथिल न हुई थी। वह झिझकी और उसी भाँति उठ खड़ी हुई जैसे किसी आकस्मिक आमत को रोकने के लिये हमारे हाथ स्वयं अनिच्छित रूप से उठ जाते है। वह घबरा कर उठी और वैग से स्टेज के पीछे की ओर निकल गयी। वहाँ पर चारपाई पड़ी हुई थी, वह उस पर जा कर गिर पड़ी। वह संज्ञा-शून्य सी हो रही थी जैसे रात के सन्नाटे से कोई गीदड़ बादल की आवाज सुने और चिल्ला कर गिर पड़े। उसे कुछ ज्ञान था तो केवल भय का।

लेकिन उसमे तोते की सी स्वाभाविक शंका थी, तो इसी तोते का सा अल्प आत्मसम्मान भी था। जैसे तोता एक ही क्षण में फिर दाने पर गिरता है और अन्त में पिंजर-बद्ध हो जाता है उसी भॉति गायत्री भी एक ही क्षण में अपनी झिझक पर लज्जित हुई। उसकी मानसिक पवित्रता कब की विनष्ट हो चुकी थी। अब वह अनिच्छित प्रतिकार की शक्ति भी विलुप्त हो गयी। उसके मनोभाव का क्षेत्र अब बहुत