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प्रेमाश्रम

विस्तृत हो गया था। पति-प्रेम उसके एक कोने में पैर फैला कर बैठ सकता था, अब हुद्देश पर उसका आधिपत्य न था। एक क्षण में वह फिर स्टेज पर आयी, शरमा रही थी कि शानशंकर मन में क्या कहते होगे। हा! मैं भक्ति के बैग में अपने को न भूल सकी। यहाँ भी अहंकार को न मिटा सकी। दर्शक-वृन्द मन में न जाने क्या विचार कर रहे होगे! वह स्टेज पर पहुँची तो ज्ञानशंकर एक पद गा कर लोगों का मनोरंजन कर रहे थे। उसके स्टेज पर आते ही पर्दा गिर गया।

आध घटे के बाद तीसरी बार पर्दा उठा। फिर वही कदम का वृक्ष था, वहीं सघन कुंज। चारो सखियाँ बैठी हुई कृष्ण के वैद्य रूप धारण की चर्चा कर रही थी। वह कितने प्रेमी, किंतने भक्तवत्सल है, स्वयं भक्तो के भक्त है।

इस वार्तालाप के उपरान्त एक पच-बद्ध रामायण होने लगा जिसमें ज्ञान और भक्ति की तुलना की गयी और अन्त में भक्ति पक्ष को ही सिद्ध किया गया। चारो सखियों ने आरती गायी और अभिनय समाप्त हुआ। पर्दा गिर गया। गायत्री के भाव-चित्रण, स्वर-लालित्य और अभिनय-कौशल की सभी प्रशसा कर रहे थे। कितने ही सरल हृदय भक्तजनों को तो विश्वास हो गया कि गायत्री को राधिका को इष्ट है। सभ्य समाज इतना प्रगल्भ तो न था, फिर भी गायत्री की प्रतिभा, उसके विशाल गाम्भीर्य, उसकी अलौकिक मृदुलता का जादू सभी पर छाया हुआ था। ज्ञानशंकर के अभिनय-कौशल की भी सराहना हो रही थी। यद्यपि उनका गाना किसी को पसन्द न आया, उनकी आवाज में कोच का नाम भी न था, फिर भी उनकी वैद्य-लीला निर्दोष बतायी जाती थी।

गायत्री अपने कमरे में आ कर कोच पर बैठी तो एक बज गया था। वह आनन्द से फूली ने समाती थी, चारो तरफ उसकी वाह-वाह हो रही थी, शहर के कई रसिक सज्जनों ने चुलते समय आ कर उसके मानव चरित्र-आन की प्रशंसा की थी, यहां तक कि श्रद्धा भी उसके अभिनय नैपुण्य पर विस्मित हो रही। उसका गौरवशील हृदय इस विचार से उन्मत्त हो रहा था कि आज सारे नगर में मेरी ही चर्चा, मेरी ही धूम है। और यह सब किसके सत्संग को, किसकी सत्य प्रेरणा का फल था? गायत्री के रोम-रोम से ज्ञानशंकर के प्रति श्रद्धध्वनि निकलने लगी। उसने ज्ञानशंकर पर अनुचित सन्देह करने के लिए अपने को तिरस्कृत किया। मुझे उनसे क्षमा माँगनी चाहिए, उनके पैरों पर गिर कर उनके हृदय से इस दुख को मिटाना चाहिए। मैं उनकी प्रदरज हैं, उन्होंने मुझे धरती से उठा कर आकाश पर पहुँचाया है। मैंने उनपर सन्देह किया। मुझसे बही कृतघ्न और कौन होगा? वह इन्हीं विचारो में मग्न थी कि ज्ञानशंकर आ कर खड़े हो गये और बोले--आज आपने मजलिस पर जादू कर दिया।

गायत्री बोली-यह जादू आपका ही सिखाया हुआ है।

ज्ञानशंकर—सुना करता था कि मनुष्य को जैसा नाम होता है वैसे ही गुण भी उसमे आ जाते है, पर विश्वास न आता था। अब विदित हो रहा है कि यह कथन सर्वथा निस्सार नहीं है। मुझे दो बार से अनुभव हो रहा है कि जब अपना पार्ट