ऐलने लगता हूँ तब किसी दूसरे ही जगत में पहुँच जाता हूँ। चित्त पर एक विचित्र आनन्द छा जाता है, ऐना भ्रम होने लगता है कि मैं वास्तव मै कृष्ण हूँ।
गायत्रीं-मैं भी यही कहनेवाली थीं। मैं तो अपने को बिलकुल भूल ही जाती हैं।
ज्ञान-सम्भव हैं उस आत्म-विस्मृति की दशा मे मुझसे कोई अपराध हो गया हो तो उसे क्षमा कीजिएगा।
गायत्री सकुचाती हुई बोली--प्रेमोद्गार में अन्त करण निर्मल हो जाता है, बासनाली का लेश भी नहीं रहती।
ज्ञानशंकर एक मिनट तक खड़े इन शब्दो के आशय पर विचार करते है और तब बाहर चले गये।
दूसरे दिन विद्यावती बनारस पहुँची। उसने अपने आने की सूचना न दी थी, केवल एक भरोसे के नौकर को साथ लेकर चली आयी थी। ज्यों ही द्वार पर पहुँची उसे वृहत् पंडाल दिखायी दिया। अन्दर गयी तो श्रद्धा दौड़ कर उससे गले मिली। गहरयां दौड़ी आयी। वह सब की सव विद्या को करुणा-सूचक नेत्रो से देख रही थी। गायत्री गंगा स्नान करने गयी थी। विद्या के कमरे में गायत्री का राज्य था। उसके बन्दूक और अन्य सामान चारों और भरे हुए थे। विद्या को ऐसा ओघ आया कि गायत्री का सुद नामान उन कर बाहर फेंक दे, पर कुछ सोच कर रह गयी। गायत्री के साथ कई महरियाँ भी आयी थी। वे वहाँ की महरियो पर रोब जमाती थी। विद्या को देख्न कर व इधर-उधर हट गयी, कोई कुशल-समाचार पूछने पर भी न आयी। दिया इन परिस्थितियों को उसी दृष्टि से देख रही थी जैसे कोई पुलिस का अफसर किसी घटना के प्रमाण को देखता है। उसके मन में जो शका आरोपित हुई थी उसकी पग-पग पर पुष्टि होती जाती थी। ज्यों ही एकान्त हुआ, विद्या ने श्रद्धा से पूछा---यह शामियाना कैसा सना हुआ है?
श्रद्धा--रात को वहां कृष्णलीला हुई थी।
विद्या-बहिन ने भी कोई पार्ट लिया?
श्रद्धा- वह राधिका बनी थी और बाबू जी ने कृष्ण का पार्ट लिया था।
विद्या-बहिन से खेलते तो न बना होगा?
श्रद्धा---वाह! वह इन कला में निपुण है। सारी सभा लट्ट, हो गयी। आती होगी, आप ही कहेगी।
विद्या-क्या नित्य गगा नान करने जाती हैं?
श्रद्धा----हाँ, प्रातः काल गंगा स्नान होता हैं, भव्या को कीर्तन सुनने जाती है।
इतने में मायाशंकर में आकर माना के चरण स्पर्श किये। विद्या ने उसमें छाती से लगाया और बोली-बेटा, आगम ने तो रहे।
मामा-जी हां, खूब आराम में था।
विद्या----बहिन, देखो इतने ही दिनों में इसकी आवाज कितनी बदल गयी है। बिल्कुल नहीं पहचानी जाती। मौसी जी के क्या रंग-ढंग है? खूब प्यार करती है न?