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प्रेमाश्रम


माया–हाँ, मुझे बहुत चाहती है, बहुत अच्छा मिजाज है।

विद्यावहाँ भी कृष्णलीला होती थी कि नहीं?

माया--हाँ, वहाँ तो रोज ही होती रहती थी। कीर्तन नित्य होता था। मथुरावृन्दावन से रासबाले बुलाये जाते थे। बाबू जी भी कृष्ण का पार्ट खेलते हैं। उनके केश खूर्द बढ़ गये हैं। सूरत से महन्त मालूम होते है। तुमने तो देखा होगा?

विद्या--हीं, देखा क्यों नहीं। बहिन अब भी उदास रहती है?

माया--मैंने तो उन्हें कभी उदास नही देखा। हमारे घर में तो ऐसा प्रसन्नचित्त कोई है ही नही।

विद्या यह प्रश्न यो पूछ रही थी जैसे कोई वकील गवाह है जिरह कर रहा हो। प्रत्येक उत्तर उसके सन्देह को दृढ करता था। दस बजे द्वार पर मोटर की आवाज सुनायी दी। सारे घर में हलचल मच गयी। कोई महरी गायत्री का पलंग बिछाने लगी, कोई उमके स्लीपरो को पोछने लगी, किसी ने फर्श झाड़ना शुरू किया, कोई उसके जलपान की सामग्रियाँ निकाल कर तश्तरी में रखने लगी और एक ने लौटा-गिलास माँज कर रख दिया। इतने में गायत्री ऊपर आ पहुँची। पीछे-पीछे ज्ञानशंकर भी थे। विद्या अपने कमरे से न निकली, लेकिन गायत्री लपक कर उसके गले से लिपट गयी और बोली---तुम कब आयी। पहले से खत भी न लिखा?

विद्या गला छुड़ा कर अलग खड़ी हो गयी और रुखाई से बोली-खत लिख कर क्या करती? यहाँ किसे फुरसत थी कि मुझे लेने जाता। दामोदर महाराज के साथ चली आयी।

ज्ञानशंकर ने विद्या के चेहरे की ओर प्रश्नात्मक दृष्टि से देखा। उत्तर मोटे अक्षरों में स्पष्ट लिखा हुआ था। विद्या भावों को छिपाने में कच्ची थी। सारी कथा उसके चेहरे पर अंकित थी। उसने ज्ञानशंकर को आँख उठा कर भी न देखा, कुशल-समाचार पूछने की बात ही क्या। नंगी तलवार बनी हुई थी। उसके तेवर साफ कह रहे थे कि वह भरी-भरी बैठी है और अवसर पाते ही उबल पड़ेगी। ज्ञानशंकर को चित्त उद्विग्न हो गया। वे शकाएँ, वह परिणाम-चिन्ता जो गायत्री के आने से दब गयी थी, फिर जागे उठी और उनके हृदय में काँटों के समान चुभने लगी। उन्हें निश्चय हो गया कि विद्या सब कुछ जान गयी, अब वह मौका पाते ही ईर्ष्या वेग में गायत्री से सब कुछ कह सुनायेगी। मैं उसे किसी भांति नही रोक सकता। समझाना, डराना, घमकाना, बिन। और चिरौरी करना सब निष्फल होगा। बस अगर अब प्राण-रक्षा की कोई उपाय है। तो यही कि उसे गायत्री से बात-चीत करने का अवसर ही न मिले। या तो आज ही शाम की गाड़ी से गायत्री को ले कर गोरखपुर चला जाऊँ या दोनों बहनों में ऐसा मनमुटाव करा दें कि एक दूसरी से खुल कर मिल ही न सकें। स्त्रियों को ला देना कौन सा कठिन काम है! एक इशारे में तो उनके तेवर बदलते है। ज्ञानशंकर को अभी तक यह ध्यान भी न था कि विद्या मेरी भक्ति और प्रेम के मर्म तक पहुँची हुई है।