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प्रेमाश्रम

सुनायी, सन्तोप हो गया। इस प्रीति का अन्त क्या होगा, इसे उसके सिवा और कौन जानता है जिसने हृदय में यह ज्वाला प्रदीप्त की है।

जिस प्रकार प्यास से तड़पता हुआ मनुष्य ठंडा पानी पी कर तृप्त हो जाता है, एक-एक घूट उसकी आँखो में प्रकाश और चेहरे पर विकास उत्पन्न कर देता है, उसी प्रकार यह प्रेम वृत्तान्त सुन कर गायत्री का मुखचन्द्र उज्ज्वल हो गया, उसकी आँखे उन्मत्त हो गयी, उसे अपने जीवन में एक नयी स्फूर्ति का अनुभव होने लगा। उसके विचारों में यह आध्यात्मिक प्रेम था, इसमें वासना का लैश भी न था। इसके प्रेरक कृष्ण थे। वहीं ज्ञानशंकर के दिल में बैठे हुए उनके कठ मे से यह प्रेम-स्वर अलाप रहे थे। उसके मनमें भी ऐसे भाव पैदा होते थे, लेकिन लज्जावश उन्हें प्रकट न कर सकती थी। राधा का पार्ट खेल चुकने के बाद वह फिर गायत्री हो जाती थी, किन्तु इस समय ये बाते सुन कर उस पर एक नशा सा छा गया। उसे ज्ञात हुआ कि राधा मेरे हृदय-स्थल में विराज रही हैं, उसकी वाणी लज्जा के बन्धन से मुक्त हो गयी। इस आध्यात्मिक रत्न के सामने समग्र संसार, यहाँ तक कि अपना जीवन भी तुच्छ प्रतीत होने लगा। आत्म-गौरव से आँखें चमकने लगी। बोली-प्रियतम, मेरी भी यह दशा है। मैं भी इसी ताप से फेंक रही हैं। यह तन और मन अब तुम्हारी भेद है। तुम्हारे प्रेम जैसा रत्न पा कर अब मुझे कोई आकांक्षा, लालसा नहीं रही। इस आत्म-ज्योति ने माया और मोह के अन्धकार को मिटा दिया, सासारिक पदार्थों से जी भर गया। अब यही अभिलाषा है कि यह मस्तक तुम्हारे चरणो पर हो और तुम्हारे कीर्ति-गान में जीवन समाप्त हो जाय। मै रानी नहीं हैं, गायत्री नहीं हैं, मैं तुम्हारे प्रेम की भिखारिनी, तुम्हारे प्रेम की मतवाली, तुम्हारी चेरी राधा हैं। तुम मेरे स्वामी, मेरे प्राणाधार, मेरे इष्टदेव हो। मैं तुम्हारे साथ बरसाने की गलियो मे विचरूंगी, यमुना के तट पर तुम्हारे प्रेम-पग गाऊंगी। मैं जानती हूं कि मैं तुम्हारे योग्य नहीं हैं, अभी मेरा चित्त भोग-विलास का दास है। अभी मैं धर्म और समाज के बन्धनों को तोड़ नहीं सकी हैं, पर जैसी कुछ हूँ अब तुम मेरी सेवाओं को स्वीकार करो। तुम्हारे ही सत्संग ने इस स्वर्गीय सुख का रस चखाया है, क्या वह मन के विकारों को शान्त न कर देगा?

यह कहते-कहते गायत्री के लोचन सजल हो गये। वह भक्ति के आवेग में ज्ञानशंकर के पैरों पर गिर पड़ी। ज्ञानशंकर ने उसे तुरन्त उठा कर छाती से लगा लिया। अकस्मात् कमरे का द्वार धीरे से खुला और विद्या ने अन्दर कदम रखा। ज्ञानशंकर और गायत्री दोनों ने चौक कर द्वार की ओर देखा और झिझक कर अलग खड़े हो गये। दोनों की आँखे जमीन की तरफ झुक गयी, चेहरे पर हवाई उड़ने लगी। ज्ञानशंकर तो सामने की अलमारी में से एक पुस्तक निकाल कर पढ़ने लगें, किन्तु गायत्री ज्यों की त्यों अवाक् और अंचल, पाषाण मूर्ति के सदृश खड़ी थी। माथे पर पसीना आ गया। जी चाहता था, धरती फट जाय और मैं उसमे समा जाऊँ। वह कोई बहाना, कोई हीला न कर सकी। आत्मग्लानि ने दुस्साहस का स्थान ही न