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प्रेमाश्रम

छोड़ा था। उसे फर्श पर मोटे अक्षरों में यह शब्द लिखे हुए दीखते थे, 'अब तू कहीं की न रही, तेरे मुंह में कालिख पुत गयी!' यही विचार उसके हृदय को आन्दोलित कर रहा था, यही ध्वनि उसके कानों में आ रही थी। वह बिलख-बिलख कर रोने लगी। अभी एक क्षण पहले उसकी आँखो से आत्माभिमान वरस रहा था, पर इस वक्त उससे दीन, उससे दलित प्राणी संसार में न था। क्षण मात्र में उसकी भक्ति और अनुराग, उसके प्रेम और ज्ञान का पर्दा खुल गया। उसे ज्ञात हुआ कि मेरी भक्ति के स्वच्छ जल के नीचे कीचड़ था, मेरे प्रेम के सुरम्य पर्वत शिखर के नीचे निर्मल अन्धकारमय गुफा थी। मैं स्वच्छ जल में पैर रखते ही कीचड़ मे आ फँसी, शिखर पर चढ़ते ही अँधेरी गुफा में आ गिरी। हा! इस उज्ज्वल, कंचनमय, लहराते हुए जल में मुझे धोखा दिया, इन मनोरम शुभ्र शिखरों ने मुझे ललचाया और अब मैं कहीं की न रही। अपनी दुर्बलता और क्षुद्रता पर उसे इतना खेद हुआ, लज्जा और तिरस्कार के भावों ने उसे इतना मर्माहत किया कि वह चौख मार कर रोने लगी हो। विद्या मुझे अपने मन में कितना कुटिल समझ रही होगी। वह मेरा कितना आदर करती थीं, कितना लिहाज करती थी, अब मैं उसकी दृष्टि में छिछोरी हैं, कुलकलकिनी हैं। उसके सामने सत्य और व्रत की कैसी डिंगे मारती थी, सेवा और सत्कर्म की कितनी सराहना करती थी। मैं उसके सामने साध्वी, सतीं बनती थी, अपने पातिव्रत्य पर घमंड करती थी, पर अब उसे मुंह दिखाने योग्य नहीं हैं। हाय! वह मुझे अपनी सौत समझ रही होगी, मुझे आँखो की किरकिरी, अपने हृदय का काँटा ख्याल करती होगी! मैं उसकी गृह-विनाशिनी अग्नि, उसकी हौड़ी मैं मुंह डालने वाली कुतिया हूँ। भगवान्! मैं कैसी अन्ची हो गयी थी। यह मेरी छोटी बहिन है, मेरी कन्या के समान है। इस विचार ने गायत्री के हृदय को इतने जोर से मसोसा कि वह कलेजा थाम कर बैठ गयीं। सहसा वह रोती हुई उठी और विद्या के पैरों पर गिर पड़ी।

विद्यावती इस वक्त केवल संयोग से यहाँ आ गयी थी। वह अमर अपने कमरे में बैठी सोच रही थी कि गायत्री बहिन को क्या हो गया है? उसे क्यों कर समझाऊँ कि यह महापुरुष (ज्ञानशंकर) तुझे प्रेम और भक्ति के सब्ज बाग दिखा रहे हैं। यह सारा स्वाँग तेरी जायदाद के लिए भरा जा रहा है। न जाने क्यों धन-सम्पत्ति के पीछे इतने अन्धे हो रहे हैं कि धर्म और विवेक को पैरो तले कुचले डालते हैं। हृदय का कितना धूर्त, कितना लोभी, कितना स्वार्थान्ध मनुष्य हैं कि अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए किसी की जान, किसी की आबरू की भी परवाह नहीं करता। बात तो ऐसी करता है मानो ज्ञान-चक्षु खुल गये हो, मानो ऐसी साघु-चरित्र, ऐसा विद्वान् परमार्थी पुरुष संसार में न होगा, पर अन्त करण में कूट-कूट कर पशुता, कपट और कुकर्म भरा हुआ है। बस, इसे यही घुन है कि गायत्री किसी तरह माया को गोद ले ले, उसको लिखापढ़ी हो जाय और इलाके पर मेरा प्रभुत्व जम जाय, उसका सम्पूर्ण अधिकार मेरे हाथो में आ जाय। इसी लिए इसने ज्ञान और भक्ति का यह जाल फैला रखा है, भगत बन