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प्रेमाश्रम

गया है, बाल बढ़ा लिये है, नाचता है, गाता है, कन्हैया बनता है। कितनी भयंकर धूर्तता है, कितना घृणित व्यवहार, कितनी आसुरी प्रवृत्ति।

यह इन्ही विचारो में मग्न थी कि उसके कानों में गायत्री के गाने की आवाज आयी। वह वीणा पर सूरदास का एक पद गा रही थी, राग इतनी सुमधुर और भावमय था, ध्वनि में इतनी करुणा और आकांक्षा भरी हुई थी, स्वर में इतना लालित्य और लोच था कि विद्या का मन सुनने के लिए लोलुप हो गया, वह विवश हो गयी, स्वर-लालित्य ने उसे मुग्ध कर दिया। उसने सोचा, सच्चे अनुराग और हार्दिक वेदना के बिना गाने मे यह असर, यह विरक्ति असम्भव है। इसकी लगन सच्ची है, इसकी। भक्ति सच्ची है। इस पर मंत्र डाल दिया गया है। मैं इस मंत्र को उतार दें, हो सके तो उसे गार में गिरने से बचा लें, उसे जता दें, जगा दें। निसन्देह यह महोदय मुझ से नाराज होगे मुझे वैरी समझेंगे, मेरे खून के प्यासे हो जायँगे, कोई चिन्ता नहीं। इस काम में अगर मेरी जान भी जाय तो मुझे विलम्ब न करना चाहिए। जो पुरुष ऐसा खूनी, ऐसा विघातक, ऐसा रँगा हुआ सियार हो उससे मेरा कोई नाता नहीं। उसका मुंह देखना, उसके घर में रहना, उसकी पत्नी कहलाना पाप हैं।

वह ऊपर से उतरी और धीरे-धीरे गायत्री के कमरे मे आयी; किन्तु पहला ही फ्ग अन्दर रखा था कि ठिठक गयी। सामने गायत्री और ज्ञानशंकर आलिंगन कर रहे थे। वह इस समय बड़ी शुभ इच्छाओं के साय आयी थी, लेकिन निर्लज्जता का यह दृश्य देख कर उसका खून खौल उठा, आँखों में चिनारियाँ सी उड़ने लगी, अपमान और तिरस्कार के शब्द मुंह से निकलने के लिए जोर मारने लगे। उसने आग्नेय नेत्रो से पति को देखा। उसके शाप मे यदि इतनी शक्ति होती कि वह उन्हे जला कर भस्म कर देता तो वह अवश्य शाप दे देती है उसके हाथ में यदि इतनी शक्ति होती कि वह एक ही बार में उनका काम तमाम कर दे तो वह अवश्य वार करती। पर उसके बश में इसके सिवाय और कुछ न था कि वह वहाँ से टल जाय। इस उद्विग्न दशा में बह वहाँ वह न सकती थी। वह उल्टे पाँव लौटना चाहती थी। खलिहान में आग लग चुकी थी, चिड़िया के गले पर छुरी चल चुकी थी, अब उसे बचाने का उद्योग करना व्यर्थ था। गायत्रीं से उसे एक क्षण पहले जो हमदर्दी हो गयी थी वह लुप्त हो गयी, अब वह सहानुभूति की पात्र न थीं। हम सफेद कपड़ो को छीटो से बचाते है, लेकिन जब छोटे पड़ गये तो उसे दूर फेक देते हैं, उसे छूने से घृणा होती है। उसके विचार में गायत्रीं अब इसी योग्य थी कि अपने किये का फल भोगे। मैं इस भ्रम में थी कि इस दुरात्मा ने तुझे बहका दिया, तेरा अन्त करण शुद्ध हैं, पर अब यह बिश्वास जाता रहा। कृष्ण की भक्ति और प्रेम का नशा इतना गाढ़ा नहीं हो सकता कि सुकर्म और कुकर्म का विवेक न रहे। आत्म-पतन की दशा में ही इतनी बेहयाई हो सकती है। हा अभागिनी! अघी अवस्था बीत जाने पर तुझे यह सूझी। जिस पति को तू देवता समझती थी, जिसकी पवित्रस्मृति की तू उपासना करती थी, जिसका माम लेते ही आत्म गौरव से तेरे मुखपर लाली छा जाती थी उसकी आत्मा को तूने