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प्रेमाश्रम

रक न थी। ज्ञानशंकर को गायत्री से सच्चा प्रेम न सही, पर वह उसके रूप-लावण्य पर मूग्ध थे। उसकी प्रतिभा, उदारता, स्नेहशीलता, बुद्धिमत्ता, सरलता उन्हें अपनी ओर खीचती थी। अगर एक और गायत्री होती और दूसरी ओर उसकी जायदाद और ज्ञानशकर से कहा जाता तुम इन दोनों में से जो चाहो ले लो तो अवश्यम्भावी था कि वह उसकी जायदाद पर ही लपकते, लेकिन उसकी जान से अलग हो कर उसकी जायदाद लवण-हीन भोजन के समान थी। वहीं गायत्री उनसे मुँह फेर कर चली जाती थी।

इन क्षोभयुक्त विचारो ने ज्ञानशंकर के हृदय को इतना मसोसा कि उनकी आँखे भर आयी। वह कुर्सी पर बैठ गये और दीवार की तरफ मुंह फेर कर रोने लगे। अपनी विवशता पर उन्हें इतना दुःख कभी न हुआ था। वे अपनी याद में इतने शोकातुर कभी न हुए थे। अपनी स्वार्थपरता, अपनी इच्छा-लिप्सा अपनी क्षुद्रता पर इतनी ग्लानि कभी न हुई थी। जिस तरह बीमारी में मनुष्य को ईश्वर याद आता है उसी तरह अकृतकार्य होने पर उसे अपने दुस्साध्य पर पश्चात्ताप होता है। पराजय का आध्यात्मिक महत्त्व विजय से कहीं अधिक होता है।

गायत्री ने ज्ञानशंकर को रोते देखा तो द्वार पर जा कर ठिठक गयी। उसके पग बाहर न पड़ सके। स्त्रियों के आँसू पानी है, वे धैर्य और मनोबल के ह्रास के सूचक है। गायत्री को अपनी निठुरता और अश्रद्धा पर खेद हुआ। आत्म-रक्षा की अग्नि जो एक क्षण पहले प्रदीप्त हुई थी इन आँसुओ से बुझ गयी। वे भावनाएँ सजीव हो गयी जो सात बरसो से मन को लालायित कर रही थी, वे सुखद वार्ताएँ, वे मनोहर क्रीडाएँ, वे आनन्दमय कीर्तन, वे प्रीति की बातें, वे वियोग-कल्पनाएँ नेत्रो के सामने फिरने लगी। लज्जा और ग्लानि के बादल फट गये, प्रेम का चाँद चमकने लगा। वह ज्ञानशंकर के पास आकर खड़ी हो गयी और रूमाल से उनके आंसू पोछने लगी। प्रेमानुराग से विह्वल हो कर उसने उनका मस्तक अपनी गोद में रख लिया। उन अश्रुप्लावित नेत्रों से उसे प्रेम का अथाह सागर लहरें मारता हुआ नजर आया। यह मुख-कमल प्रेम-सूर्य की किरणो से विकसित हो रहा था। उसने उनकी तरफ सतृष्ण नेत्रो से देखा, उनमें क्षमा प्रार्थना भरी हुई थी मानो वह कह रही थी, हो मैं कितनी दुर्बल, कितनी श्रद्धाहीन हूँ। कितनी जड़भक्त हैं कि रूप और गुण का निरूपण न कर सकी। मेरी अभक्ति ने इनके विशुद्ध और कोमल हृदय को व्यथित किया होगा। तुमने मुझे धरती से आकाश पर पहुँचाया, तुमने मेरे हृदय में शक्ति का अकुर जमाया, तुम्हारे ही सदुपदेशो से मुझे सत्प्रेम का स्वर्गीय आनन्द प्राप्त हुआ। एकाएक मेरी आँखो पर पर्दा कैसे पड़े गया? मैं इतनी अन्धी कैसे हो गयी? निस्सन्देह कृष्ण भगवान् मेरी परीक्षा ले रहे थे और मैं उसमें अनुत्तीर्ण हो गयी। उन्होने मुझे प्रेम-कसौटी पर कसा और मै खोटी निकली। शोक मेरी सात वर्षों की तपस्या एक क्षण में भंग हो गयी। मैंने उस पुरुष पर सन्देह किया जिसके हृदय में कृष्ण का निवास है, जिसके कंठ मे मुरली की ध्वनि है। राधा! तुमने क्यों मेरे दिल पर से अपना जादू खीच लिया? मेरे हृदय में आ कर बैठो और मुझे धर्म का अमृत पिलाओ।