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प्रेमाश्रम


यह सोचते-सोचते गायत्री की आँखे अनुरक्त हो गयी। वह कग्पित स्वर से बोली भगवन्! तुम्हारी चेरी जुम्हारे सामने हाथ बांधे खड़ी अपने अपराधों की क्षमा मांगती है।

ज्ञानशंकर ने उसे चुभती हुई दृष्टि से देखा और समझ गये कि मेरे आँसू काम कर गये। इस तरह चौक पड़े मानो नीद से जगे हो और बोले--राधा?

गायत्री--मुझे क्षमा दान दीजिए।

ज्ञान--तुम मुझसे क्षमा दान माँगती हो? यह तुम्हारा अन्याय है! तुम प्रेम की देवी हो, वात्सल्य की मूर्ति निर्दोष, निष्कलक। यह मेरा दुर्भाग्य है कि तुम इतनी अस्थिर चित्त हो। प्रेमियों के जीवन में सुख कहाँ? तुम्हारी अस्थिरता ने मुझे सजाहीन कर दिया है। मुझे अब भी भ्रम हो रहा कि गायत्री देवी से बातें कर रहा हूँ या राधा रानी से। मैं अपने आपको भूल गया हूँ। मेरे हृदय को ऐसा आघात पहुँचा है कि कह नहीं सकता यह घाव कभी मरेगा या नहीं? जिस प्रेम और भक्ति को मैं अटल समझता था, वह बालू की भीत से भी ज्यादा पोलीं निकली। उस पर मैंने जो आशालता आरोपित की थी, जो बाग लगाया था वह सब जलमग्न हो गया। अहा! मैं कैसे-कैसे मनोहर स्वप्न देख रहा था? सोचा था, यह प्रेम बाटिका कभी फूलों से लहरायेगी, हम और तुम सांसारिक मायाजाल को हटा कर वृन्दावन के किसी शान्तिकुज में बैठे हुए भक्ति का आनन्द उठायेंगे। अपनी प्रेम-ध्वनि से वृक्ष कुजों को गुंजित कर देंगे। हमारे प्रेम-गान से कालिन्दी की लहरे प्रतिध्वनित हो जायेगी। मैं कृष्ण का चाकर बनूंगा, तुम उनके लिए पकवान बनाओगी। संसार से अलग, जीवन के अपवादो में दूर हक अपनी प्रेम-कुटी बनायेगे और राधाकृष्ण की अटल भक्ति में जीवन के बचे हुए दिन काट देंगे अथवा अपने ही कृष्ण मन्दिर में राधाकृष्ण के चरणो से लगे हुए इस असार संसार से प्रस्थान कर जायेंगे। इसी सदुद्देश्य से मैंने आपकी रियासत की और यहाँ की पूरी व्यवस्था की। पर अब ऐसा प्रतीत हो रहा है कि वह सब शुभ कामनाएँ दिल में ही रहेगी और मैं शीघ्र ही संसार से हताश और भग्न-हृदय विदा हूँगा।

गायत्री प्रेमोन्मत्त हो कर बोली-भगवन्, ऐसी बाते मुँह से न निकालो। मैं दीन अबला हूँ, अज्ञान के अन्धकार में डूबी हुई, मिथ्या भ्रम में पड़ जाती हैं, पर मैंने तुम्हारा दामन पकड़ा है, तुम्हारी शरणागत हैं, तुम्हे मेरी क्षुदताएँ, मेरी दुर्बलताएँ सभी क्षमा करनी पड़ेगी। मेरी भी यही अभिलाषा है कि तुम्हारे चरणों से लगी रहूँ। मैं भी संसार से मुँह मोड़ लूंगी, सबसे नाता तोड़ लूंगी और तुम्हारे साथ बरसाने और वृन्दावन की गलियों में विचरूँगी। मुझे अगर कोई सांसारिक चिंता है तो वह यह है कि मेरे पीछे मेरे इलाके का प्रबन्ध सुयोग्य हाथो में रहे, मेरी प्रजा पर अत्याचार न हो और रियासत की आमदनी परमार्थ में लगे। मेरा और तुम्हारा निर्वाह दस-बारह हजार रुपयो में हो जायगा। मुझे और कुछ न चाहिए। हाँ, यह लालसा अवश्य हैं कि मेरी स्मृति बनी रहे, मेरा नाम अमर हो जाये, लोग मेरे यश और कीर्ति की चर्चा करते रहे। यही चिन्ता है जो अब तक मेरे पैरो की बेड़ी बनी हुई है। आप इस बेड़ी को काटिए। यह भार मैं आप के ही ऊपर रखती हैं। ज्यों ही आप इन दोनों बातों

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