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प्रेमाश्रम

होने पर भी उसका गौरव अभी तक बचा हुआ है। मेरे चाचा और सम्बन्धी इसे कभी मंजूर न करेंगे और विद्या तो सुन कर विष खाने को उतारू हो जायेगी। इसके अतिरिक्त मेरी बदनामी भी हैं। सम्भव है लोग यह समझेगे कि मैने आपकी सरलता और उदारता से अनुचित लाभ उठाया है और आपके कुटम्ब के लोग तो मेरी जान के गाहक ही हो जायेंगे।

गायत्री-मेरे कुटुम्बियो की ओर से तो आप निश्चिन्त रहिए, मैं उन्हें आपस में लडा कर मारूंगी। बदनामी और लोक-निन्दा आपको मेरी खातिर से सहनी पड़ेगी। रही विद्या, उसे मैं मना लूंगी।

ज्ञान-नहीं, यह आशा न रखिए। आप उसे मनाना जितना सुगम समझ रही है उससे कही कठिन है। आपने उसके तेवर नहीं देखे। वह इस समय सौतिया डाह से जल रही है। उसे अमृत भी दीजिए तो विष समझेगी। जब तक लिखा-पढी न हो जाय और प्रथानुसार सब संस्कार पूरे न हो जाये उसके कानों में इसकी भनक भी न पड़नी चाहिए। यह तो सच होगा, मगर उन लोगों की हाय किस पर पड़ेगी जो बरसो से रियासत पर दाँत लगाये बैठे हैं? उनके घरों में तो कुहराम मच जायगा। सब के सब मेरे खून के प्यासे हो जायेगे। यद्यपि मुझे उनसे कोई भय नहीं है, लेकिन शत्रु को कभी तुच्छ न समझना चाहिए। हम जिससे घन और घरती छीन लें उससे कभी नि शंक नहीं रह सकते।

गायत्री---आप इन दुष्टो का ध्यान ही न कीजिए। ये कुत्ते हैं, एक छीछड़े पर लड़ मरेंगे।

ज्ञानशंकर कुछ देर तक मौन रूप से जमीन की ओर ताकते रहे, जैसे कोई महान् त्याग कर रहे हो। फिर सजल नेत्रो से बोले, जैसी आपकी मरजी, आपकी आज्ञा सिर पर है। परमात्मा से प्रार्थना है कि यह लड़का आपको मुबारक हो और उससे आपकी जो आशाएँ हैं वह पूरी हो। ईश्वर उसे सद्बुद्धि प्रदान करे कि वह आपके आदर्श को चरितार्थ करे। वह आज से मेरा लड़का नहीं, आपका हैं। तथापि अपने एकमात्र पुत्र को छाती से अलग करते हुए दिल पर जो कुछ बीत रही। है वह मैं ही जानता हूँ, लेकिन वृन्दावनबिहारी ने अपके अन्त करण में यह बात डाल कर मानो हमारे लिए भक्ति-पथ का द्वार खोल दिया है। वह हमे अपने चरणो की ओर बुला रहे है। यह हमारा परम सौभाग्य है।

गायत्री ने ज्ञानशंकर का हाथ पकड़ कर कहा—कल ही किसी पंडित से शुभ मुहर्त पूछ लीजिए।



५१

रात के आठ बजे थे। ज्ञानशंकर के दीवानखाने में शहर के कई प्रतिष्ठित सज्जन जमा थे। बीच में एक लोहे का हवनकुंड रखा हुआ था, उसमे हवन हो रहा था। हवनकुड के एक तरफ गायत्री बैठी थी, दूसरी तरफ ज्ञानशंकर और माया। एक