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प्रेमाश्रम

पंडिताजी वेद-मन्त्रों का पाठ कर रहे थे। गायत्री का चम्पई वर्ष अग्नि-ज्वाला से प्रतिविम्वित हो कर कुन्दन हो रहा था। फिरोजी रंग में साड़ी उसपर खूब खिल ही थी। सबकी आँखे उसी के मुख-दीपक की ओर लगी हुई थी। यह माया को गोद लेने का संस्कार था, वह गायत्री का धर्मपुत्र बन रहा था। कुछ सज्जुन आपस में कानाफूनी कर रहे थे, कैसा भाग्यवान लड़का है। लाखो की सम्पत्ति को स्वामी बनाया जाता है, यहाँ आज तक एक पैसा भी पड़ा हुआ न मिला। कुछ लोग कह रहे थे—ज्ञानशंकर एक ही बना हुआ आदमी हैं, ऐसा हत्थे पर चढाया कि जायदाद ले कर ही छोड़ा। अब मालूम हुआ कि महाशय ने स्वांग किस लिए रचा था। यह जटाएँ इसी दिन के लिए बढायी थी। कुछ सज्जनों का मन था कि ज्ञानशंकर इससे भी कहीं मलिनहृदय है।

लाला प्रभाशंकर ने पहले यह प्रस्ताव सुना तो बहुत बिगड़े, लेकिन जब गायत्री ने वही नम्रता से सारी परिस्थिति प्रकट की तो वह भी नीमराजी में हो गये। हृवन के पश्चात् दावत शुरु हुई। इसका सारा प्रबंध उन्हीं के हाथों में था। उनकी अर्धस्वीकृति को पूर्ण बनाने का इससे उत्तम कोई अन्य उपाय न था। उन्हें पूरा अधिकार दे दिया गया था कि वह जितना चाहे वर्ष करें, जो पदार्थ चाहे पकवायें। अतएव इस अवसर पर उन्होंने अपनी सम्पूर्ण पाककला प्रदर्शित कर दी थी। इस समय खुशी से उनकी बाँछें खिली जाती थी, लोगों के मुंह में भोजन की सराहना सुन सुन कर फूले न समाते थे। इनमे कितने ही ऐसे सज्जन थे जिन्हें भोजन से नितान्त अरुचि रहती थी। जो दावतों में शरीक होना अपने ऊपर अन्याय समझते थे। ऐसे लोग भी थे जो प्रत्येक वस्तु को गिन कर और तौल कर खाते थे। पर इन स्वादयुक्त पदार्थों ने तीव्र और मन्द अग्नि में कोई भेद न रखा था। रुचि ने दुर्बल पाचनशक्ति को भी सबल बना दिया था।

दावत समाप्त हो गयी तो गाना शुरू हुआ। अलहदीन एक सात वर्ष का बालक था, लेकिन गानशास्त्र का पूरा पंडित और संगीत कला में अत्यन्त निपुण। यह उसकी ईश्वरदत्त शक्ति थी। जलतरंग, ताऊस, सितार, सरोद, वीणा, पखावज, सारंगीसभी यन्त्रको पर उसका विलक्षण आधिपत्य था। इतनी अल्पावस्था में उनकी यह अलौकिक सिद्धि देख कर लोग विस्मित हो जाने थे। जिन गायनाचार्यों ने एक एक यन्त्र की सिद्धि में अपना जीवन बिता दिया वह भी उसके हाथों की सफाई और कोमलता पर सिंर धुनते थे। उसकी बहुज्ञता उनकी विशेषता को लज्जित किये देती थी। इस समय समस्त भारत में उसकी ख्याति थीं, मानो उसने दिग्विजय कर लिया हो। ज्ञानशंकर ने उस उत्सव पर उसे कलकत्ते से बुलाया था। बह बहुत दुर्बल, कुत्सित, कुरूप बालक था, पर उसका गुण उसके रूप को भी चमत्कृत कर देता था। उसके स्वर में कोयल की कूक का सा माधुर्य था। सारी सभा मुग्ध हो गयी।

इधर तो यह राग-रंग था, उधर विद्या अपने कमरे में बैठी हुई भाग्य को रो रहीं थी। तबले की एक-एक थाप उसके हृदय पर हथौड़े की चोट के ममाने लगती थी।