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प्रेमाश्रम

है। दिखाने के लिए भोली बन बैठी हुई है। पुरुष हजार रसिया हो, हजार चतुर हो, हजार धातिया हो, हजार डोरे डाले, किन्तु सती स्त्रियों पर उसका एक मन्त्र भी नहीं चल सकता। वह आँख ही क्या जो एक निगाह में पुरुष की चाल ढाल को ताड़ न ले। जलाना आग का गुण हैं, पर हरी लकड़ी की भी किसी ने जलते देखा है? ह्या स्त्रियों की जान है, इसके बिना वह सुखी लकड़ी हैं जिन्हें आग की एक चिनगारी जला कर राख कर देती है। इसे अपने पति देव की आत्मा पर भी दया न आयी। उसे कितना क्लेश हो रहा होगा इसके आने से मेरा घर अपवित्र हो गया। रात को दोनो प्रेमियों की बातों की भनक जो मेरे कान में पड़ी, उससे ऐसा कुछ मालूम होता है कि गायत्री माया को गोद छेना चाहती है।

विद्या ने भयभीत हो कर कहा-माया को?

अदा–हाँ, शायद आज ही उसकी तैयारी हैं। शहर में नेवता भेजे जा रहे है।

विद्या की आँखो में आँसू की बड़ी-बड़ी बूंदे दिखायी दी जैसे मटर की फली में दाने होते हैं। बोली, बहिन तब तो मेरी नाव डूब गयी। जो कुछ होना था हो चुका। अब सारी स्थिति समझ में आ गयी। इस धूर्त ने इसीलिए यह जाल फैलाया था, इसीलिए इसने यह भेष रचा है, इसी नीयत से इसने गायत्री की गुलामी की थी। मैं पहले ही डरती थी। कितना समझाया, कितना मना किया, पर इसने मेरी एक सुनी। अब मालूम हुआ कि इसके मन में क्या ठनी थी। आज सात साल से यह इसी बुन में पड़ा हुआ है। अभी तक में यह समझती थी कि इसे गायत्री के रंग-रूप, बनाव-चुनाव, बातचीत ने मोहित कर लिया है। वह निन्द्य कर्म होने पर भी घृणा के योग्य नहीं है। जो प्राणी प्रेम कर सकता है वह घर्म, दया, विनय आदि सद्गुणो से शून्य नहीं हो सकता, प्रेम की ज्योति उसके हृदय को प्रकाशित करती रहती है, लेकिन जो प्राणी प्रेम का स्वांग भर कर उससे अपनी कुटिल अर्थ सिद्ध करता है, जो टट्टी की आड़ से शिकार खेलता है उमसे ज्यादा नीच नराधम कोई हो ही नही सकता। वह उस डाकू से भी गया बीता है जो धन के लिए लोगो के प्राण हर लेता है। वह प्रेम जैसी पवित्र वस्तु का अपमान करता है। उसका पाप अक्षम्य है। मैं बेचारी गायत्री को अब भी निर्दोष समझती हूँ। बहिन, अब इस कुल का सर्वनाश होने में विलम्ब नहीं है। जहाँ इतना अधर्म, इतना पाप, इतना छल-कपट हो वहाँ कल्याण कैसे हो सकता है? अब मुझे पिता जी की चेतावनी याद आ रही है। उन्होने चलते समय मुझसे कहा था--अगर तूने यह आग न बुझायी तो तेरे वंश का नाम मिट जायगा। हाय। मेरे रोएँ खड़े हो रहे हैं। बेचारे माया पर क्या बीतेगी? यह हराम का माल, यह हराम की जायदाद उसकी जान की ग्राहक हो जायेगी, सर्प बनकर कर उसे डंस लेगी? बहिन, मेरा कलेजा फटा जाता है। मैं अपने माया को इस आग से क्योंकर बचाऊँ? वह मेरी आँखों की पुतली है, वही मेरे प्राणों का आधार हैं। यह निर्दयी पिशाच, यह अधिक मेरे लाल की गर्दन पर छुरी चल रहा है। कैसे उसे गोद में छिपा लूँ? कैसे उसे हृदय में बिठा लूँ? बाप हो कर उसको विष दे