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प्रेमाश्रम

वास्तविक अवस्था का कुछ गुप्त ज्ञाच सा हो रहा था। उसने बहुत धीरे से कमरे में पैर रखा। धुंधली दीबालगीर अव भी जल रही थी और विद्या द्वार के पास फर्श पर बेखबर पड़ी हुई थी। चेहरे पर मुर्दनी छायी हुई थी, आँखे बन्द थी और जोर-जोर से साँस चल रही थी। यद्यपि खूब सर्दी पड़ रही थी, पर उसकी देह पसीने से तर थी। माथे पर स्वेद-बिन्दु झलक रहे थे जैसे मुझये हुए फूल पर ओस की बूंद झलकती है। गायत्री ने लैम्प तेज करके विद्या को देखा। ओठ नीले पद्ध गये थे और हाथ-पैर धीरे-धीरे काँप रहे थे। उसने उसका सिर अपनी गोद में रख लिया, अपना सुगन्ध से डूबा हुआ रुमाल निकाल लिया है और उसके मुंह पर झलने लगी। प्रेममय शोक-वेदना से उसको हृदय विकल हो उठा। गला भर आया, बोली--विद्या, कैसा जी है।

विद्या ने आँख खोल दी और गायत्री को देख कर बोली–बहिन! इसके सिवा वह और कुछ न कह सकी। बोलने की बारवार चेष्टा करती थीं, पर मुँह से आवाज ने निकलती थी। उसके मुख पर एक अतीव करुणाजनक दीनता छा गयी। उसने विवश दृष्टि से फिर गायत्री को देखा। आँखे लाल थी, लेकिन उनमे उन्मत्तता या उग्रता न थी। उनमें आत्मज्योति झलक रही थी। वह विनय, क्षमा और शाहि से परिपूर्ण थी। हुमारी अंतिम चितवने हमारे जीवन का सार होती हैं, निर्मल और स्वच्छ ईर्षा और द्वेष जैसी मलिनताओं से रहित। विद्या की जान बन्द थी, लेकिन आँख कह रही थी--मेरा अपराध क्षमा करना। मैं थोड़ी देर की मेहमान हूँ। मेरी ओर से तुम्हारे मन में जो मलाल हो वह निकाल डालना। मुझे तुमसे कोई शिकायत नही है, मेरे भाग्य में जो कुछ बदा था, वह हुआ। तुम्हारे भाग्य में जो कुछ बदा है, वह होगा। तुम्हें अपना सर्वस्व सौप जाती हूँ। उसकी रक्षा करना।

गायत्री ने रोते हुए कहा--विद्या तुम कुछ बोलती क्यों नहीं? कैसा जी है, डाक्टर बुलाऊँ?

विद्या ने निराश दृष्टि से देखा और दोनो हाथ जोड़ लिये। आँखे बन्द हो गयी। गायत्री व्याकुल हो कर नीचे दीवानखाने में गयी और माया से बोली, बाबू जी को ऊपर ले जाओ। मैं जाती हूँ, विद्या की दशा अच्छी नहीं है।

एक क्षण में ज्ञानशंकर और माया दोनों अपर आये। श्रद्धा भी हलचल सुन कर दौड़ी हुई आयी। ज्ञानशंकर ने विद्या को दो-तीन बार पुकारा, पर उसने आँखें न खोली। तब उन्होने अलमारी से गुलाबजल की बोतल निकाली और उसके मुंह पर कई बार छीटें दिये। विद्या की आँखे खुल गयी, किन्तु पति को देखते ही उसने जोर से चीख मारी। यद्यपि हाथ-पाँच अकड़े हुए थे, पर ऐसा जान पडा कि उनमें कोई विद्युन-शक्ति दौड़ गयी। वह तुरन्त उठ कर खड़ी हो गयी। दोनों हाथों से आँख बन्द किये द्वार की ओर चली। गायत्री ने उसे सँभाला और पूछा--विद्या, पहचानती नहीं, बाबू ज्ञानशंकर हैं।

विद्या ने सशक और भयभीत नेत्रो से देखा और पीछे हटती हुई बोली--अरे, यह फिर आ गया। ईश्वर के लिए मुझे इमसे बचाओ।