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प्रेमाश्रम

तरह-तरह के खिलौने लाते, पर मुन्नी उनकी ओर आँख उठा कर भी न देखती। गायत्री से उसे न जाने क्या चिढ़ थी। उसकी सूरत देखते ही रोने लगती। एक बार गायत्री ने गोद में उठा लिया तो उसे दाँतो से काट लिया। चौथे दिन उसे ज्वर ही आया और तीन दिन बीमार रह कर मातृहृदय की भूखी बालिका चल बसी।

विद्या के मरने के पीछे विदित हुआ कि वह कितनी बहुप्रिय और सुशीला थी। मुहल्ले की स्त्रियां श्रद्धा के पास आ कर चार आंसू बहा जाती। दिन भर उनका तांता लगा रहता। बड़ी बहू और उनकी बहू भी सच्चे दिल से उसका मातम कर रही थी। उस देवी ने अपने जीवन में किसी को 'रे' या 'तू' नहीं कही, महरियों से भी हँसहँस बाते करती। नसीब चाहे खोटा था, पर हृदय में दया थी। किसी का दुख न देख सकती थी। दानशीला ऐसी थी कि किसी भूखे भिखारी, दुखियारे को द्वार से फिरने न देती थी, घेले की जगह पैसा और आध पाव की जगह पाय देने की नीयत रखती थी। गायत्री इन स्त्रियो से आँखें चुराया करती। अगर वह कभी आ पड़ती तो सब की सब चुप हो जाती और उसकी अवहेलना करती। गायत्री उनकी श्रद्धापात्र बनने के लिए उनके बालको को मिठाइयाँ और खिलौने देती, विद्या की रो-रो कर चर्चा करती पर उसका मनोरथ पूरा न होता था। यद्यपि कोई स्त्री मुंह से कुछ न कहती थी, लेकिन उनके कटाक्ष व्यंग से भी अधिक मर्मभेदी होते थे। एक दिन बड़ी बहू ने गायत्री के मुंह पर कहा----न जाने ऐसा कौन सा काँटा था जिसने उसके हृदय में चुभ कर जान ली। दूध-पूत सब भगवान ने दिया था, पर इस काँटे की पीड़ा न सही गयी। यह काँटा कौन था, इस विषय में महिलाओं की आँखें उनकी वाणी से कही सशब्द थी। गायत्री मन में कट कर रह गयी।

वास्तव में कुटुम्ब या मुहल्ले की स्त्रियों को विद्या के मरने का जितना शौक था उससे कही ज्यादा गायत्री को था। डाक्टर प्रियनाथ ने स्पष्ट कह दिया कि इसने विष खाया है। लक्षणों से भी यही बात सिद्ध होती थी। गायत्री इस खून से अपना हाथ रंगा हुआ पाती थी। उसकी सगर्व आत्मा इसे कल्पना से ही कांप उठती थी। वह अपनी निज की महरियो से भी विद्या की चर्चा करते झिझकती थी। मौत की रात को दृश्य कभी न भूलता था। विद्या की वह क्षमाप्रार्थी चितवने सदैव उसकी आँखो में फिरा करती। हा, यदि मुझे पहले मालूम होता कि उसके मन में मेरी और से इतना मिथ्या भ्रम हो गया हैं तो यह नौबत न आती। लेकिन फिर जब वह उसके पहलेवालीं रात की घटनाओं पर विचार करती तो उसका मन स्वयं कहती था कि विद्या का सन्देह करना स्वाभाविक था। नहीं, अब उसे कितनी ही छोटी-छोटी बाते ऐसी भी याद आती थी जो उसने विद्या का मनोमालिन्य देख कर केवल उसे जलाने और सुलगाने के लिए की थी। यद्यपि उस समय उसने ये बातें अपने पवित्र प्रेमी की तरंग में की थी और विद्या के ही सामने नहीं, सारी दुनिया के सामने करने पर तैयार थी, पर इन खून के छीटो से वह नशा उतर गया था। उसका मन स्वयं स्वीकार करता था कि वह विशुद्ध प्रेम न था, अज्ञात रीति से उसमें वासना का लेश आ गया था। विद्या मुझे देख कर सदय