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प्रेमाश्रम

कि उसे भी ज्ञानशंकर से विशेष स्नेह न था। ज्ञानशंकर की संकीर्णता और स्वार्थपर ता दिनो-दिन गायत्री को विदित होने लगी। अब उसे ज्ञान होने लगा कि पिता जी ने मुझे ज्ञानशंकर से बचते रहने की जो ताकीद की थी उसमें भी कुछ न कुछ रहस्य अवश्य था। ज्ञानशंकर के प्रेम और भक्ति पर से भी उसका विश्वास उठने लगा। उसे संदेह होने लगा कि उन्होनें केवल अपना कार्य सिद्ध करने के लिए तो यह स्वाँग नहीं रचा। अब उसे कितनी ही ऐसी बात याद आने लगी, जो इस संदेह को पुष्ट करती थी। ज्यों ज्यों यह सन्देह बढ़ता था ज्ञानशंकर की ओर से उसका चित्त फिरता जाता था। ज्ञानशंकर गायत्री के चित्त की यह वृत्ति देख कर बड़े असमजस में रहते थे। उनके विचार में यह मनोमालिन्य शान्त करने का सर्वोत्तम उपाय यही था कि गायत्री को किसी प्रकार गोरखपुर खीच ले चले। लेकिन उससे यह प्रस्ताव करते हुए वह डरते थे। अपनी गोटी लाल करने के लिए वह गायत्रीं का एकान्त-सेवन परमावश्यक समझते थे। मायाशंकर को गोद लेने से ही कोई विशेष लाभ न था। गायत्री की आयु ३५ वर्ष से अधिक न थी और कोई कारण न था वह अभी ४५ वर्ष जीवित न रहे। यह लम्बा इन्तजार ज्ञानशंकर जैसे अधीर पुरुषों के लिए असह्य था। इसलिए वह श्रद्धा और भक्ति का वहीं वशीकरण मन्ने मार कर गायत्री को अपनी मुट्ठी में करना चाहते थे।

एक दिन में एक पत्र लिये हुए गायत्री के पास आ कर बोले, गोरखपुर से यह बहुत जरूरी खत आया है। मुख्तार साहब ने लिखा है कि ये फसल के दिन हैं। आप लोगों का आना जरूरी है, नही तो सौर की उपज हाय न लगेगी, नौकर-चाकर खा जायेगे।

गायत्री ने रूष्ट हो कर कहा—इसका उत्तर तो मैं पीछे दूंगी, पहले यह बताइए कि आप मेरी चिट्ठियाँ क्यों खोल लिया करते है?

ज्ञानशंकर सन्नाटे मे आ गये, समझ गये कि मैं इसकी आँखो में उससे कहीं ज्यादा गिर गया हूँ जितना मैं समझता हूँ। बगल झांकते हुए बोले—मेरा अनुमान था कि इतनी आत्मिक घनिष्ठता के बाद इस शिष्टाचार की जरूरत नही। लेकिन आप को नागवार लगता है तो आगे ऐसी भूल न होगी।

गायत्री ने लज्जित हो कर कहा-मेरा आशय यह नहीं था। मैं केवल यह चाहती हैं कि मेरी निज की चिट्ठियाँ न खोला जाया करे।

ज्ञानशंकर इस धृष्टता का कारण यह था कि मैं अपनी आत्मा को आपकी आत्मा में सयुक्त समझता था, लेकिन ऐसा जान पड़ता है कि इस घर के द्वेष-पोषक जलवायु ने हमारे बीच में भी अन्तर डाल दिया। भविष्य में ऐसा दुस्साहस न होगा। मालूम होता है कि मेरे कुदिन आये हैं। देखे क्या-क्या झेलना पड़ता है।

गायत्री ने बात का पहलू बदल कर कहा—मुख्सार साहब को लिख दीजिए कि अभी हम लोग न आ सकेगे, तहसील-वसूल शुरू कर दें।

ज्ञानशंकर मेरे विचार में हम लोगों को वहाँ रहना जरूरी है।

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