पृष्ठ:प्रेमाश्रम.pdf/३३५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३४०
प्रेमाश्रम

उसके मुख की ओर देख कर बोली--मुख क्यों लाल हो रहा है। आँखों में आँसू क्यों भरे हैं?

गायत्री--कुछ नही, मन ही तो है।

श्रद्धा--मुझसे कहने योग्य नहीं है।

गायत्री-तुमसे छिपा ही क्या है जो तुम पूछती हो। मैंने अपनी तरफ से छिपाया हैं, लेकिन तुम सब कुछ जानती हो। यहाँ कौन नहीं जानता है? उन बातों को जब याद करती हूँ तो ऐसी इच्छा होती है कि एक ही कटार से अपनी और उसकी गर्दन काट ड़ालूँ। खून खौलने लगता है। मुझे जरा भी भ्रम न था कि वह इतना बड़ा धूर्त और पाजी हैं। बहिन, अब चाहे जो कुछ ही मैं उससे अपनी आत्महत्या की बदला अवश्य लूंगी। मर्यादा तो यही कहती है कि विद्या की भाँति बिष खा कर मर जाऊँ, लेकिन यह तो उसके मन की बात होगी, वह अपने भाग्य को सराहेगा और दिल खोल कर विश्व का भोग करेगा। नहीं, मैं यह मूर्खता न करूंगी। नहीं, मैं उच्च धुला-भुला कर और रटा-रटा कर मारूंगी। मैं उसका सिर इस तरह कुचलूंगी जैसे साँप का सिर कुचला जाता है। हा! मुझ जैसी अभागिनी संसार में न होगी।

यह कहते-कहते गायत्री फूट-फूट कर रोने लगीं। जरा दम ले कर फिर उसी प्रवाह में बोली, श्रद्धा, तुम्हें विश्वास न आयेगा, यह मनुष्य पक्का जादूगर है। इसने मुझ पर ऐसा मंत्र मारा कि मैं अपने को बिलकुल भूल गयी। मैं तुमसे अपनी सफाई नहीं कर रही हूँ। वायुमंडल में नाना प्रकार के रोगाणु उड़ा करते हैं। उनका विष उन्हीं प्राणियों पर असर करता हैं, जिनमें उनके ग्रहण करने का विकार पहले से ही मौजूद रहता है। मच्छर के डंक से सबको ताप और जुड़ी नहीं आती। वह बाह्य उत्तेजना कैनल भीतर के विकार को उभार देती है। ऐसा न होता तो आज समस्त संसार में एक भी स्वस्थ प्राणी न दिखायी देता। मुझमें यह विकृत पदार्य था। मुझे अपने आत्म-बल पर घमंड था। मैं एँद्रिक भोग को तुच्छ समझती थी। इस दुरात्मा ने उसी दीपक से जिससे मेरे अँधेरे घर में उजाला था घर में आग लगा दी, जो तलवार मेरी रक्षा करती थी वहीं तलवार मेरी गर्दनपर चला दी। अब मैं वहीं तलवार उसकी गर्दन पर चलाऊँगी। वह समझता होगा कि मैं अबला हूँ, निर्बल हूँ उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकती। लेकिन मैं दिखा दूंगी कि अबला पानी की भाँति इत्र हो कर भी पहाडों को छिन्न-भिन्न कर सकती है। मेरे पूज्य पिता आत्मदर्शी हैं। उन्हें उसकी बुरी नीयत मालूम हो गयी थी, इसी कारण उन्होंने मुझे तसे दूर रहने की ताकीद की थी। उन्होंने अवश्य विद्या से यह बात कही होगी। इसीलिए विद्या यहाँ मुझे सचेत करने आयीं थीं। लेकिन शोक! मैं नशे में ऐसी चूर थी कि पिता जी की चेतावनी की भी कुछ परवाह न की। इस चूर्त ने मुझे उनकी नजरों में भी गिरा दिया। अब वह मेरा मुँह देखना भी न चाहेंगे।

गायत्रीं यह कह कर फिर शोकमग्न हो गयी। श्रद्धा की समझ में न आता था कि इसे कैसे सांत्वना दें। अकस्मात् गायत्री उठ खड़ी हुई। सन्दूक में से कलम, दावात, कागज निकाल लायी और बोली, बहिन, जो कुछ होना था हो चुका; इसके लिए जीवन