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प्रेमाश्रम

कलेजे में एक आग सी सुलग रही है। यह सब उसकी उसी बहिन की करामात है। जो रानी बनी फिरती है। उसी ने विष दिया होगा।

शीलमणि ने गायत्री की ओर देखा न था और देखा भी हो तो पहचानती न थी। श्रद्धा ने दांतो तले जीभ दवायी और छाती पर हाथ रख कर आँखो से गायत्री को इशारा किया। शीलमणि ने चौक कर बायी तरफ देखा तो एक स्त्री सिर झुकाये बैठी हुई थी। उसकी प्रतिभा, सौन्दर्य और वस्त्राभूषण देख कर समझ गयी कि गायत्री यही है। उसकी छाती धक से हो गयी, लेकिन उसके मुख से ऐसी बाते निकल गयी थी कि जिनको फेरना या सँभालना मुश्किल था। वह जलता हुआ ग्रास मुंह में रख चुकी थी और उसे निगलने के सिवा दूसरा उपाय न था। यद्यपि उसको क्रोध न्याय-संगत था, पर शायद गायत्री के मुंह पर वह ऐसे कटु शब्द मुंह से न निकाल सकती। लेकिन अब तीर कमान से निकल चुका था इसलिए उसके क्रोध ने हेकड़ी का रूप धारण किया, लज्जित होने के बदले और उद्दड हो गयी। गायत्री की ओर मुंह करके बोली—अच्छा, रानी साहिबा तो यही विराजमान हैं। मैंने आपके विषय में जो कुछ कहा है वह आपको अवश्य अप्रिय लगा होगा, लेकिन उसके लिए मैं आप से क्षमा नहीं माँग सकती। यही बाते मैं आपके मुंह पर कह सकती थी और एक मैं क्या संसार यही कह रहा है। मुंह से चाहे कोई न कहे, किन्तु सब के मन में यही बात है। लाला ज्ञानशंकर से जिसे एक बार भी पाला पड़ चुका है, वह उसे अग्राह्य नहीं समझ सकता। मेरे बाबू जी इनके साथ के पढे हुए हैं और इन्हें खूब समझे है।

जब वह मैजिस्ट्रेट थे, तो उन्होने अपने असामियों पर इजाफा लगान का दावा किया था। महीनो मेरी खुशामद करते रहे कि मैं बाबू जी से डिगरी करवा दूं। मैं क्या जानू, इनके चकमे में आ गयी। बाबू जी पहले तो बहुत आनाकानी करते रहे, लेकिन जब मैंने जिद्द की तो राजी हो गये। कुशल यह हुई कि इसी बीच में मुझे उनके अत्याचार का हाल मालूम हो गया और डिगरी न होने पायी, नही तो कितने दीन असामियों की जान पर बन आती। दावा डिसमिस हो गया। इस पर यह इतने रुष्ट हुए कि समाचार-पत्रों में लिख लिख कर बाबू जी को बदनाम किया। वह अब पत्रों में इनके धमत्साह की खबरे पढते थे तो कहते थे, महाशय अब जरूर कोई न कोई स्वाँग रच रहे है। गौरदपुर में सनातन धर्म के उत्सव पर जो घूम-धाम हुई और बनारस में कृष्णलीला का जो नाटक खेला गया उनका वृतान्त पढ़ कर बाबू जी ने खेद के साथ कहा था, यह महाशय रानी साहेबा को सब्ज वाग दिखा रहे है। इसमें अवश्य कोई न कोई रहस्य हे। लाला जी मुझे मिल जाते तो ऐसा आड़े हाथों लेती कि वह भी याद करते।

गायत्री खिड़की की ओर ताक रही थी, यहाँ तक कि उसकी दृष्टि से खिड़की भी लुप्त हो गयी। उनके अन्त करण से पश्चात्ताप और ग्लानि की लहरें उठ उठ कर कंठ तक आती थी और उसके नेत्र-रूपी नौका को झकोरे दे कर लौट जाती थी। वह नशा-हीन हो गयी थी। सारी चैतन्य शक्तियां शिथिल हो गयी थी। श्रद्धा ने उसके मुझ की ओर देखा, आँसू न रोक सकी। इस अभागिनी दुखिया पर उसे कभी इतनी