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प्रेमाश्रम

यह तो वह करे जिसमें आत्मा मर गयी हो, जिसे पेट पालने के सिवा लोक-परलोक की कुछ भी चिन्ता न हो। जिसके हृदय में जाति-प्रेम का लेशमात्र हैं वह ऐसे अन्याय नहीं कर सकता। भला तो होता है सरकार का, रोब तो उसका बढ़ता है, जैव तो अँगरेज व्यापारियों के भरते हैं और पाप के भागी होते हैं यह पेट के बन्दे नौकर, यह स्वार्थ के दास अधिकारी, और फिर में नौकरी की परवाह ही क्या है। घर में खाने को बहुत है। दो-चार को खिला कर खा सकते हैं। अब तो पक्का इरादा करके आयें हैं कि यही वादू प्रेमशंकर के साथ रहें और अपने से जहाँ तक हो सके प्रजा की भलाई करें। अब यह बतानो तुम कब तक रहोगी? क्या इसी तरह रो-रो कर उम्र काटने की ठान ली है?

श्रद्धा---प्रारब्ध मे जो कुछ है उसे कौन मिटा सकता है?

शील कुछ नहीं, यह तुम्हारी व्यर्थ की टेक है। मैं अबकी तुम्हें घसीट ले चलूँगी। इस उजाड़ में मुझने अकेले न रहा जायगा। हम और तुम दोनों रहेगी तो सुख से दिन करेंगे। अवसर पाते ही मैं उन महाशय की भी खबर लूँगी। संसार के लिए तो जान देते फिरते हैं और घरवालो की खबर ही नहीं लेते। जरा सा प्रायश्चित करने में क्या शान घटी जाती है?

श्रद्धा---तुम अभी उन्हें जानती नहीं हो। थह सब कुछ करेंगे पर प्रायश्चित न करेंगे। वह अपने सिद्धान्त को न तोड़ेगे! जिस पर भी वह मेरी और से निश्चिन्त नहीं हैं। ज्ञानशंकर जब से गोरखपुर रहने लगे तब से वह प्रायः यहाँ एक बार आ जाते हैं। अगर काम पड़े तो उन्हें यहाँ रहने में भी आपत्ति न होगी, लेकिन अपने नियम उन्हें प्राणो भी प्रिय हैं।

शीलमणि ने आकाश की तरफ देखा तो बादल घिर आये थे। घबरा कर बोलीं-- कही पानी न बरसने लगे। अब चलूँगी। श्रद्धा ने उसे रोकने की बहुत चेष्टा की, लेकिन शौलमणि ने नहीं माना। आखिर उसने कहा-जरा चल कर उनके आँसू तो पोंछ दो। बेचारी तभी ने बैठी रो रहीं होगी।

शीलमणि---रोना तो उनके नसीब में लिखा है। अभी क्या रोयी हैं! ऐसे आदमी की यही सजा है। नाराज हो कर मेरा क्या बना लेंगी? रानी होगी तो अपने घर की होंगी।

शीलमणि को विदा करके श्रद्धा झेपती हुई गायत्री के पास आयी। वह डर रही थी, ही गायत्री मुझपर सन्देह न करने लगीं हो कि सारी करतूत इसी की है। उसने डरते-डरते अपराधी की भाँति कमरे में कदम रखा। गायत्री ने प्रार्थी दृष्टि से उसे देखा, पर कुछ बोली नहीं। बैठी हुई कुछ लिख रही थी। मुख पर शौक के साये दृढ़ संकल्प की झलक थी। कई मिनट तक बहू लिखने में ऐसी मग्न थी मानो श्रद्धा के आने का उसे ज्ञान ही न था। सहसा बोली---बहिन, अगर तुम्हें कष्ट न हो तो जरा माया को बुला दो और मेरी महरियों को भी पुकार लेना।

श्रद्धा समझ गयी कि इसके मन में कुछ और ठन गयी। कुछ पूछने का साहस