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प्रेमाश्रम


करूं। मन में यह निश्चय करके उन्होंने तत्क्षण अपने चाचा के नाम यह पत्र लिखा---

‘मान्यवर, यह बात मेरे लिए असह्य है कि आपके सुपुत्र मेरी अनुपस्थिति में मेरे कमरे में आ कर ऊधम मचायें और मेरी वस्तुओं का सर्वनाश करें। मैं चाहता हूं कि आज घर का बँटवारा हो जाय और लड़कों को ताकीद कर दी जाय कि वह भूल करा भी मेरे मकान में पदक्षेप न करें, अन्यथा मैं उनकी ताड़ना करूँ, तो आपको या चाची को मुझसे शिकायत करने का कोई अधिकार न रहेगा। इसका ध्यान रखिएगा कि मुझे जो भाग मिले वह गार्हस्थ्य आवश्यकताओं के अनुकूल हो, और सबसे बड़ी बात यह है कि वह पृथक् हो जिसमे मैं उसको अपना समझ सकें और आते-जाते, उठते-बैठते, आग्नेय नेत्रों और व्यंग शरो का लक्ष्य न बनूँ।'

यह पत्र कहार को दे कर वह उत्तर का इंतजार करने लगे। सोच रहे थे कि देखे, बुड्ढा अब की क्या चाल चलता है? एक क्षण में कहार ने उसका जवाब ला कर उनके हाथ में रख दिया--

बेटा, मेरे लड़के तुम्हारे लड़के हैं। उन्हें दंड देने का तुमको पूरा अधिकार है, इसकी शिकायत मुझे न कभी हुई है न होगी। बल्कि तुम्हारा मुझपर अनुग्रह होगा, यदि कभी-कभी इनकी खबर लेते रहो। रहा घर का बंटवारा, उसे मैं तुम्हारे ऊपर छोड़ता हूँ। घर तुम्हारा है, मैं भी तुम्हारा हूँ, जो टुकड़ा चाहो मुझे दे दो, मुझे कोई आपत्ति न होगी। हाँ, यह ध्यान रखना कि मैं बाहर बैठने का आदी हूँ, इसलिए दीवानखाने के बरामदे मे मेरे लिए एक चौकी की जगह दे देना। बस, यही मेरी हार्दिक अभिलाषा थी कि मेरे जीवनकाल में यह विच्छेद न होता, पर तुम्हारी यदि यही इच्छा है और तुम इसी में प्रसन्न हो तो मैं क्या कर सकता हूँ।'

ज्ञानशंकर ने पुर्जे को जेब में रख लिया और मुस्कराये। बुढ़ा कैसा घाघ हैं, इन्हीं नम्रताओं से उसने पिता जी को उल्लू बना लिया था, मुझसे भी वही चाल चल रहा है, पर मैं ऐसा गौखा नहीं हूँ। समझे होंगे कि जरा दब जाऊँ तो वह आप ही दब जायेगा! यहाँ ऐसी विषम शालीनता का पाठ नहीं पढ़ा है। विवश हो कर दबना तो समझ में आता है, पर किसी के खातिर से दबना, केवल मुरौवत के हाथों की कठपुतली बनना, यह निरी भावुकता है!

ज्ञानशंकर बैठ कर सोचने लगे, कैसे इस समस्या की पूर्ति करूँ, केवल यह एक कमरा नीचे के दीवानखाने और उसके बगल के दोनों कमरो की समता नहीं कर सकता। ऊपर के दो कमरों पर दयाशंकर का अधिकार है। पर अमर के तीनों कमरे मेरे, नीचे के तीनों कमरे उनके। यहाँ तो बड़ी सुगमता से विभाग हो गया, किंतु जनाने घर में यह पार्थक्य इतना सुलभ नहीं। पद की कम से कम दो दीवारें खीचनी पड़ेगी। पूर्व की और निकास के लिए एक द्वार खोलना पड़ेगा, और इसमें झंझट है। म्युनिसिपैलिटी महीनों का अलसेट लगा देगी। क्या हर्ज हैं, यदि मैं दीवानखाने के नीचे-ऊपर के दोनों भागों पर संतोष कर लूँ? जनाना मकान उन्हीं के हिस्से में डाल दूं। यहाँ ऊपर स्त्रियाँ भली-भाँति रह सकती है। जनाना मकान इनसे बड़ा अवश्य हैं, पर न जाने कब का बना