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प्रेमाश्रम

परवाना है, नही तो रजिस्टर चिट्ठी भेजने की क्या जरूरत थी? काँपते हुए हाथो से पत्र खोला। लिखा था---मैं आज बद्रीनाथ जा रही हूँ। आप सावधानी से रियासत का प्रबन्ध करते रहिएगा। मुझे आपके ऊपर पूरा भरोसा है, इसी भरोसे ने मुझे यह यात्रा करने पर उत्साहित किया है। इसके बाद वह आदेश था जिसका ऊपर जिक्र किया जा चुका है। ज्ञानशंकर का चित्त कुछ शान्त हुआ। लिफाफा रख दिया और सोचने लगे, बात वहीं हुई जो वह चाहते थे। गायत्री सब कुछ उनके सिर छोड़ कर चली गयी। यात्रा कठिन है, रस्ता दुर्गम है, पानी खराब है, इन विचारों ने उन्हें जरा देर के लिए चिन्ता में डाल दिया। कौन जानता है क्या हो। वह इतने व्याकुल हुए कि एक बार जी मे आया, क्यो न मैं भी बद्रीनाथ चलूँ। रास्ते में भेंट हो जायगी। वहाँ तो उसके कोई कान भरनेवाला में होगा। सम्भव है मैं अपना खोया हुआ विश्वास फिर जमा हो, प्रेम के बुझे हुए दीपक को फिर जला दें, इस सन्दिग्ध दशा का अन्त हो जाय। गोयत्री के बिना अब उन्हें सब कुछ सुना मालूम होता था। यह विपुल सम्पत्ति अगर सुख-सरिता थी तो गायत्री उसकी नौका थी। नौका के बिना जलविहार का आनन्द कहाँ? पर थोड़ी देर में उनका यह आवेग शान्त हो गया। सोचा, अभी वह मुझसे भरी बैठी है, मुझे देखते ही जल जायगी। मेरी और से उसका चित्त कितना कठोर हो गया है। माया को मुझसे छीने लेती हैं। अपने विचार में उसने मुझे कड़े से कड़ा का दंड दिया है। ऐसी दशा में मेरे लिए सबसे सुलभ यही है। कि अपनी स्वामि-भक्ति से, सुप्रबन्ध से, प्रजा-हित से, उसे प्रसन्न करूं। प्रेमशंकर ने अच्छा निशाना मारा। बगुला भगत हैं, बैठे-बैठे दो हजार रुपये मासिक की जागीर बना ली। बेचारा माया कही को न रहा। प्रेमशंकर उसे कुशल कृषक बना देंगे, लेकिन चतुर इलाकेदार नहीं बना सकतें। उन्हें खबर ही नही कि रईसों की शिक्षा कैसी होनी चाहिए। खैर, जो कुछ हो, मेरी स्थिति उतनी शौचनीय नहीं है जितना मैं समझता था।

ज्ञानशंकर ने अभी तक दूसरी चिट्ठियाँ न खोली थीं। अपने चित्त को यों समझा कर उन्होने दूसरा लिफाफा उठाया तो राय साहब को पत्र थी। उनके विषय में ज्ञानशंकर को केवल इतना ही मालूम था कि विद्या के देहान्त के बाद वह अपनी दवा कराने के लिए मसुरी चले गये हैं। पत्र खोल कर पढने लगे-

बाबू ज्ञानशंकर, आशीर्वाद। दो-एक महीने पहले मेरे मुँह से तुम्हारे प्रति आशीवाद का शब्द न निकलता, किन्तु अब मेरे मन की वह दशा नही हैं। ऋषियो का वचन है कि बुराई से भलाई पैदा होती है। मेरे हक में यह वचन अक्षरश चरितार्थ हुआ। तुम मेरे शत्रु हो कर परम मित्र निकले। तुम्हारी बदौलत मुझे आज यह शुभ अवसर मिला। मैं अपनी दवा कराने के लिए मसूरी आया, लेकिन यहाँ मुझे वह वस्तु मिल गयी जिस पर मैं ऐसे सैकड़ो जीवन न्यौछावर कर सकता हूँ। मैं भोगबिलास का भक्त था। मेरी समस्त प्रवृत्तियाँ जीवन का सुख भोगने में लिप्त थी। लौकपरलोक की चिन्ताओं को मैं अपने पास न आने देता था। यहाँ मुझे एक दिव्य आत्मा