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प्रेमाश्रम

हो गयी और नौका तट पर आ पहुँची, जहाँ दृष्टि की परम सीमा के निधियों का भव्य विस्तृत उपवन लहरा रहा था।



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बाबू ज्वालासिंह को बनारस से आयें आज दूसरा दिन था। कल तो वह थकावट के मारे दिन भर पड़े रहे, पर प्रात काल ही उन्होने लखनपुरवालो की अपील का प्रश्न छेड़ दिया। प्रेमशंकर ने कहा- मैं तो आप ही की बाट जोह रहा था। पहले मुझे प्रत्येक काम में अपने ऊपर विश्वास होता था, पर आप सा सहायक पा कर मुझे पगपग पर आपके सहारे की इच्छा होती हैं। अपने ऊपर से विश्वास ही उठ गया। आपके विचार में अपील करने के लिए कितने रुपये चाहिए।

ज्वालासिंह-ज्यादा नही तो चार-पाँच हजार तो अवश्य ही लग जायेगे।

प्रेम--और मेरे पास चार-पाँच सौ भी नही है।

ज्वाला---इसकी चिन्ता नही। आपके नाम पर दस-बीस हज़ार मिल सकते हैं।

प्रेम--- मैं ऐसा कौन सा जाति का नेता हूँ जिस पर लोगों की इतनी श्रद्धा होगी?

ज्वाला–जनता आपको आपसे अधिक समझती है। मैं आज ही चन्दा वसूल करना शुरू कर दूंगा।

प्रेम-मुझे आशा नहीं कि आपको इसमे सफलता होगी। सम्भव है दो चार सौ रुपये मिल जायें, लेकिन लोग यही समझेंगे कि उन्होने भी कमाने का यह ढंग निकाला। चन्दे के साथ ही लोगो को सन्देह होने लगती है। आप तो देखते ही है, चन्दो ने हमारे कितने ही श्रद्धेय नेताओं को बदनाम कर दिया। ऐसा बिरला ही कोई मनुष्य होगा जो चन्दो के भँवर में पड़कर वेदाग निकल गया हो। मेरे पास श्रद्धा के कुछ गहने अभी बचे हुए हैं। अगर वह सब बेच दिया जाय तो शायद हजार रुपये मिल जायें।

इतने में शीलमणि इन लोगो के लिए नाश्ता लायी। यह बात उसके कानों में पड़ी। बोली--कभी उनकी सुधि भी लेते हैं या गहनो पर हाथ साफ करना ही जानते है? अगर ऐसी ही जरूरत है तो मेरे गहने ले जाइए।

ज्वाला—क्यों न हो, आप ऐसी ही दानी तो है। एक-एक गहने के लिए तो आप महीनो रूठती हैं, उन्हे ले कर कौन अपनी जान गाढे में डाले!

शील---जिस आग से आदमी हाथ सेंकता है, क्या काम पड़ने पर उससे अपने चने नहीं भून लेता। स्त्रियाँ गहने पर प्राण देती हैं लेकिन अवसर पड़ने पर उतार भी फेकती हैं।

मायाशंकर एक तरफ अपनी किताव खोले बैठा हुआ था, पर उसका ध्यान इन्हीं बातों की ओर था। एक कल्पना बार-बार उसके मन में उठ रही थी, पर संकोचवश। उसे प्रकट न कर सकता था। कई बार इरादा किया कि कहूँ, पर प्रेमशंकर की ओर देखते ही जैसे कोई मुँह बन्द कर देता था। आँखे नीची हो जाती थी! शीलमणि की