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प्रेमाश्रम

कितना देवदुर्लभ त्याग है! कितना संतोष। ईश्वर तुम्हारे इन पवित्र भाव को सुदृढ करें, पर मैं तुम्हारे साथ इतना अन्याय नहीं कर सकता।

माया- तो दो-चार वृत्तियां कम कर दीजिए, लेकिन यह सहायता उन्ही लड़को को दी जाय जो यहाँ आकर खेती और बुनाई का काम सीखे।

ज्वाला-मैं इस प्रस्ताव का अनुमोदन करता हूँ। मेरी राय मैं तुम्हे अपने लिए कम से कम ५०० रु० रखने चाहिए। वाकी रुपये तुम्हारी इच्छा के अनुसार खर्च किये जाये। ७५ वृत्तियाँ बुनाई और ७५ खेती के काम सिखाने के लिये दी जायँ। भाई साहब कृषिशास्त्र और विज्ञान में निपुण है। बुनाई का काम मैं सिखाया करूंगा। मैंने इसका अच्छी तरह अभ्यास कर लिया है।

प्रेमशंकर ने ज्वालासिंह का खंडन करते हुए कहा, मैं इस विषय में रानी गायत्री की आज्ञा और इच्छा के बिना कुछ नहीं करना चाहता।

मायाशंकर ने निराश भाव से ज्वालासिंह को देखा और फिर अपनी किताब देखने लगा।

इसी समय डाक्टर इर्फाअली के दीवानखाने में भी इसी विषय पर वार्तालाप हो रहा था। डाक्टर साहब सदैव अपने पेशे की दिल खोल कर निन्दा किया करते थे। कभी-कभी न्याय और दर्शन के अध्यापक बन जाने का इरादा करते। लेकिन उनके विचार में स्थिरता न थी, न विचारो को व्यवहार में लाने के लिए आत्मबल ही था। नही, अनर्थ यह था कि वह जिन दोषों की निन्दा करते थे उन्हें व्यवहार में लाते हुए जरा भी सकोच न करते, जैसे कोई जीर्ण रोगी पथ्यों से अव कर सभी प्रकार के कुपथ्य करने लगे। उन्हें इस पेशे को धन-लोलुपता से घृणा थी, पर आप मुवक्किलों को बड़ी निर्दयता से निचोड़ते थे। वकीलों की अनीति का नित्य रोना रोते थे। पर आप दुर्नीति के परम भक्त थे। अपने हलवे-माडे से काम था, मुवक्किले चाहे मरे या जिये। इनकी स्वार्थपरायणता और दुर्नीति के ही कारण लखनपुर का सर्वनाश हुआ था।

लेकिन जब से प्रेमशंकर ने उपद्रवकारियो के हाथों से उनकी रक्षा की थी तभी से उनकी रीति-नीति और आचार-विचार में एक विशेष जागृति सी दिखायी देती थी। उनकी धन-लिप्सा अब उतनी निर्दय न थी, मुवक्किलो से बड़ी नम्रता का व्यवहार करते, उनके वृत्तान्त को विचारपूर्वक सुनते, मुकदमे को दिल लगा कर तैयार करते, इतना ही नही, बहुधा गरीब मुवक्किलो से केवल शुकराना ले कर ही सन्तुष्ट हो जाते थे। इस सद्व्यवहार का कारण केवल यही नहीं था कि वह अपने खोये हुए सम्मान को फिर प्राप्त करना चाहते थे, बल्कि प्रेमशंकर का सन्तोषमय, निष्काम और नि स्पृह जीवन उनके चित्त की शान्ति और सहृदयता का मुख्य प्रेरक था। उन्हें जब अवसर मिलता प्रेमशंकर से अवश्य मिलने जाते और हर बार उनके सरल और पवित्र जीवन से मुग्ध हो कर लौटते थे। अब तक शहर में कोई ऐसा साधु, सात्विक पुरुष न था जो उनपर अपनी छाप बाल सके। अपने सहवर्गियो में वह किसी को अपने से अधिक विवेकशील, नीतिपरायण और सहृदय न पाते थे। इस दशा में वह अपने को ही सर्वश्रेष्ठ