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प्रेमाश्रम


हुआ है। थोड़े ही दिनों में उसे फिर बनवाना पड़ेगा। दीवारे अभी से गिरने लगी हैं। नित्य मरम्मत होती ही रहती है। छत भी टपकती है। बस मेरे लिए दीवानखाना ही अच्छा है। चाचा साहब का इसमें गुजर नहीं हो सकती, उन्हें विवश हो कर जनाना मकान लेना पड़ेगा। यह बात मुझे खूब सूक्षी, अपना अर्थ भी सिद्ध हो जायेगा और इदारता का श्रेय भी हाथ रहेगा।

मन में यह निश्चय करके वह स्त्रियों से परामर्श करने के लिए अंदर गये। वह सभ्यता के अनुसार स्त्रियों की सम्मति अवश्य लेते थे, पर 'वीटों' का अधिकार अपने हाथ में रखते और प्रत्येक अवसर पर उसका उपयोग करने के कारण वह अबाघ्य सम्मति का गला घोट देते थे। वह अंदर गये तो उन्हें बड़ा करुणाजनक दृश्य दिखाई दिया। दयाशंकर कचही जा रहे थे और बड़ी बहू आँखों में आँसू भरे उनको विदा कर रही थी। दोनों बहनें उनके पैरों से लिपट कर रो रही थी। उनकी पत्नी अपने कमरे के द्वार पर घूँघट निकाले उदास खड़ी थी। संकोचवश पति के पास न आ सकती थी। श्रद्धा भी खड़ी रो रही थी। आज अभियोग का फैसला सुनाया जानेवाला था। मालूम नहीं क्या होगा। घर लौट कर आनी बदा है या फिर घर का मुंह देखना नसीब न होगा। दयाशंकर अत्यंत कातर देख पड़ते थे। ज्ञानशंकर को देखते ही उनके नेत्र सजल हो गये, निकट आ कर बोले, भैया, आज मेरा हृदय शंका से काँप रहा है। ऐसा जान पड़ता है, आप लोगों के दर्शन न होगे। मेरे अपराधों को क्षमा कीजिएगा, कौन जाने फिर भेंट हो या न हो, दया का क्या आसरा? यह घर अब आपके सुपुर्द है।

ज्ञानशंकर उनकी यह बातें सुन कर पिघल गये। अपने हृदय की संकीर्णता-क्षुद्रता पर ग्लानि उत्पन्न हुई। तस्कीन देते हुए बोले, ऐसी बातें मुंह से न निकालो, तुम्हारी बाल भी बाँका न होगा। ज्वालासिंह कितने ही निर्दयी बने, पर मेरे एहसानों को नहीं भूल सकते। और सच्ची बात तो यह है कि मैं अभी तुम्हारे ही सम्बन्ध में बातें करके उनके पास से आ रहा हूँ, तुम अवश्य बरी हो आओगे। उन्होंने स्पष्ट शब्दों मे मुझे इसका विश्वास दिलाया है। चलता तो मैं भी तुम्हारे साथ, किन्तु मेरे जाने से काम बिगड़ जायगा।

दयाशंकर ने अविश्वासपूर्ण कृतज्ञता के भाव से उनकी ओर देख कर कहा, हाकिमों की बात का क्या भरोसा?

ज्ञानशंकर-ज्वालासिंह उन हाकिमों में नहीं है।

दयाशंकर---यह न कहिए, बड़ा बेमुरौवत आदमी है।

ज्ञानशंकर ने उनके हृदयस्थ अविश्वास को तोड़ कर कहा, यही हृदय की निर्बलता हमारे अपराधों का ईश्वरीय दंड है, नहीं तो तुम्हें इतना अविश्वास न होता।

दयाशंकर लज्जित हो कर वहाँ से चले गये। ज्ञानशंकर ने भी उनसे और कुछ न कहा---उन्होंने हारी हुई बाजी को जीतना चाहा था, पर सफल न हुए। वह इस बात पर मन में झुंझलाये कि यह लोग मुझे उच्च भावों के योग्य नहीं समझते। मैं इनकी दृष्टि में विषैला सर्प हूँ। जब मुझ पर अविश्वास है तो फिर जो कुछ करना है वह