पृष्ठ:प्रेमाश्रम.pdf/३५१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३५६
प्रेमाश्रम


ज्वाला—अभी १००रु० माहवार मिलेंगे।

इर्फान—बहुत माकूल है। क्यों मिर्जासाहब, मंजूर है न? ऐसा मौका फिर आपको न मिलेगा।

ईजाद हुसेन ने कृतज्ञ भाव से कहा—दिलोजान से हाजिर हूँ। मेरी जवान मे ताकत नही है कि इस एहसान का शुक्रिया अदा कर सकूँ। हैरत तो यह है कि मुझे उनसे एक ही बार नियाज हासिल हुमा और उन्हे मेरी परवरिश का इतना खयाल है।

ज्वाला—वह आदमी नही, फरिश्ते हैं। आपके यतीमखाने का कई बार जिक्र कर चुके है। शायद यतीमो के लिए कुछ वजीफे मुकर्रर करना चाहते हैं। इस वक्त सब कितने यतीम है।

उपकार ने ईजाद हुसेन के हृदय को पवित्र भावो से परिपूरित कर दिया था। अति-शयोक्ति से काम न ले सके। एक क्षण तक वह असमंजस में पड़े रहे, पर अन्त में सद्भावों ने विजय पायी। बोले-जनाब, अगर आपने किसी दूसरे मौके पर यह सवाल किया होता तो मैं उसका कुछ और ही जवाब देता, पर आप लोगो की शराफत और हमदर्दी का मुझ जैसे दगाबाज आदमी पर भी असर पड़ ही गया। मेरे यहां दो किस्मो के यतीम है। एक मुस्तकिल और दूसरे फसली। जरूरत के वक्त इन दोनो की ताय-दाद पचास से भी बढ़ जाती है, लेकिन फसली यतीमो को निकाल दीजिए तो सिर्फ दस यतीम रह जाते है। मुमकिन है आप इनको यतीम न खयाल करे, लेकिन मैं समझता हूँ गरीब आदमी के अजीजो के लड़के सच्चे यतीम है।

इर्फानअली ने मुस्कुरा कर कहा—तो हजरत, आपने क्या यतीमखाने का स्वांग ही खड़ा कर रखा है? कम से कम मुझसे तो पर्दा न रखना चाहिए था। तभी आपने अपनी सारी जायदाद यतीमखाने के नाम लिख दी थी।

ईजाद हुसेन ने शर्म से सिर झुका कर कहा—किबला, जरूरत इन्सान से सब कुछ करा लेती है। मैं वकील नही, बैरिस्टर नही, ताजिर नही, जागीरदार नही, एक मामूली लियाकत का आदमी हूँ। मुझ बदनसीब के वालिद टोक की रियासत मे ऊँचे मसबदार थे। हजारो की आमदनी थी, हजारो का खर्च। जब तक वह ज़िन्दा रहे मैं आजाद धूमता रहा, कनकये और बटेरो से दिल बहलाता रहा। उनकी आँखे बन्द होते ही खानदान की परवरिश का भार मुझ पर पड़ा और खान्दान भी वह जो ऐश का आदी था। मेरी गैरत ने गवारा न किया कि जिन लोगो पर वालिद मरहम ने अपना साया कर रखा था उनसे मुंह मोड़ लूं। मुझमे लियाकत न हो, पर खान्दानी गैरत मौजूद थी। बुरी सोहबतो ने दगा और मक्र को फन मे पुख्ता कर दिया। टोक मे गुजरान की कोई सूरत न देखी तो सरकारी मुलाजमत कर ली और कई जिलो की खाक छानता हुमा यहाँ आया। आमदनी कम थी, खर्च ज्यादा। थोड़े दिनो मे घर की लेई-पूंजी गायब हो गयी। अब सिवाय इसके और कोई सूरत न थी कि या तो फाके करूं या गुजरान की कोई राह निकालूं। सोचते-सोचते यही सूझी जो अब कर रहा हूँ।

इर्फानअली—अन्दाजन आपको सालाना कितने रुपये मिल जाते होंगे?