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प्रेमाश्रम


इसी तर्क-वितर्क में गायत्री बद्रीनाथ की यात्रा पर आरूढ़ न हो सकी। हृषीकेश में पड़े-पड़े तीन महीने गुजर गये और हेमन्त सिर पर आ पहुँचा, यात्रा दुस्साध्य हो गयी।

पौष मास था, पहाड़ो पर बर्फ गिरने लगी थी। प्रात काल की सुनहरी किरणों में तुषार-मंडित पर्वत श्रेणियों की शोभा अकथनीय थी। एक दिन गायत्री ने सुना कि चित्रकूट में कहीं से ऐसे महात्मा आये है जिनके दर्शन मात्र से ही आत्मा तृप्त हो जाती है। वह उपदेश बहुत कम करते हैं, लेकिन उनका दृष्टिपात उपदेशो से भी ज्यादा सुधावर्षी होता है। उनके मुखमंडल पर ऐसी कान्ति है मानों तपाया हुआ कुन्दन हो। दूध ही उनका आहार है और वह भी एक छटाँक से अधिक नही, पर डलहौल और तेजबल ऐसा है कि ऊँचौ से ऊंची पहाड़ियों पर खटाखट चढते चले जाते हैं, न दम फूलता है, न पैर काँपते है, न पसीना आता है। उनका पराक्रम देख कर अच्छे-अच्छे योगी भी दंग रह जाते है। पसूनी के गलते हुए पानी में पहर रात से ही खड़े हो कर दो-तीन घंटे तक तप किया करते है। उनकी आँखों में कुछ ऐसा आकर्षण हैं कि बन के जीवधारी भी उनके इशारों पर चलने लगते है। गायत्री ने उनकी सिद्धि का यह वृत्तान्त सुना तो उसे उनके दर्शनों की प्रबल उत्कंठा हुई। उसने दूसरे ही दिन चित्रकूट की राह ली और चौथे दिन पसूनी के तट पर एक धर्मशाला में बैठी हुई थी।

यहाँ जिसे देखिए वही स्वामी जी का कीर्तिगान कर रहा था। भक्त जन दूर-दूर से आये हुए थे। कोई कहता था यह त्रिकालदर्शी हैं, कोई उन्हें आत्मज्ञानी बतलाता था। गायत्री उनकी सिद्धि की कथाएँ सुन कर इतनी विह्वल हुई कि इसी दम जा कर उनके चरणों पर सिर रख दे, लेकिन रात से मजबूर थी। वह सारी रात करवटें बदलती और सोचती रही कि मैं मुंह अँधेरे जा कर महात्मा जी के पैरों पर गिर पड़ेंगी और कहूंगी कि महाराज, मैं अभागिनी, आप आत्मज्ञानी है, आप सर्वज्ञ हैं, मेरा हाल आपसे छिपा हुआ नहीं है, मैं अथाह जल में डूबी जाती हूँ, अब आप ही मुझे उबार सकते हैं। मुझे ऐसा उपदेश दीजिए और मेरी निर्बल आत्मा को इतनी शक्ति प्रदान कीजिए कि वह माया मोह के बन्धनों से मुक्त हो जाय। मेरे हृदय-स्थल में अन्धकार छाया हुआ है, उसे आप अपनी व्यापक ज्योति से आलोकित कर दीजिए। इस दीन कल्पना से गदगद हो कर घंटों रोती रही। उसकी कल्पना इतनी सजग हो गयी कि स्वामी जी के आश्वासन-शब्द भी उसके कानो मे गूंजने लगे। ज्यों ही मैं उनके चरणो पर गिरूँगी वह प्रेम से मेरे सिर पर हाथ रख कर कहेंगे, बेटी, तुझ पर बड़ी विपत्ति पड़ी है, ईश्वर तेरा कल्याण करेंगे। जाड़े की लम्बी रात किसी भाँति कटती ही न थी। यह बार-बार उठ कर देखती तड़का तो नहीं हो गया है, लेकिन आकाश में जगमगाते हुए तारों को देख कर निराश हो जाती थी। पाँचवीं बार जब उठी तो पौ फट रही थी। तारागण किसी मधुर गान के अन्तिम स्वरों की भाँति लुप्त होते जाते थे। आकाश एक पीतवस्त्रधारी योगी की भाँति था जिसका मुखकमल आत्मोल्लास से खिला हुआ