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प्रेमाश्रम

हो और पृथ्वी एक माया-रहस्य थी, और के नीले पर्दे में छिपी हुई गायत्री ने तुरन्त पसूनी में स्नान किया और स्वामी जी के दर्शन करने चली।

स्वामी जी की कुटी एक ऊँची पहाड़ी पर थी। वहाँ वह एक वृक्ष के नीचे बैठे हुए थे। वही चट्टानो के फर्श पर भक्तजन आ-आ कर बैठते जाते थे। चढाई कठिन थी, पर श्रद्धा लोगों को ऊपर खींचे लिये जाती थी। अशक्तता और निर्बलता ने भी सदनुराग के सामने सिर झुका दिया था। नीचे से ऊपर तक आदमियों का तांता लगा हुआ था। गायत्री ने पहाड़ी पर चढ़ना शुरू किया। थोड़ी दूर चल कर उसका दम फूल गया। पैर मन-मन भर के हो गये, उठायें न उठते थे, लेकिन वह दम ले-ले कर हाथों और घुटनों के बल चट्टानो पर चढती हुई ऊपर जा पहुँची। उसकी सारी देह पसीने से तर थी और आँख के सामने अँधेरा छा रहा था, लेकिन ऊपर पहुँचते ही उमका विज्ञ ऐसा प्रफुल्लित हुआ जैसे किसी प्यासे को पानी मिल आय। गायत्री की छाती में धड़कन सी होने लगी। ग्लानि की ऐसी विषम, ऐसी भीषण पीड़ा उसे कभी न हुई थी। इस ज्ञान-ज्योति को कौन सा मुँह दिखाऊ। उसे स्वामी जी की और ताकने का साहस न हुआ जैसे कोई आदमी सर्राफ के हाथ में खोटा फिक्की देता हुआ डरे। बस इसी हैसबैस में थी कि सहसा उसके कानो में आवाज आयी--गायत्री, मैं बहुत देर से तेरी बाट जोह रहा हैं। यह राय कमलानन्द की आवाज थी, करुणा और स्नेह में डूबी हुई। गायत्री ने चौक कर सामने देखा स्वामी जी उसकी ओर चले आ रहे थे। उनके तेजोमय मुखारबिन्द पर करुणा झलक रही थी और आँखे प्रेमाश्रु से भरी हुई थी। गायत्री की आँखें झुक गयी। ऐसा जान पड़ा मानो मैं तेज तरंगों में बही जाती हूँ। हा मैं इस विशाल आत्मा की पुत्री हूँ। ग्लानि ने कहा, हा पतिता। लज्जा ने कहा, हा कुलकलकिनी। निराशा बोली, हा अभागिनी। शोक ने कहा, तुझ पर धिक्कार! तू इस योग्य नहीं कि संसार को अपना मुँह दिखाये। अध पतन अब क्या शेष है जिसके लिए जीवन की अभिलाषा: विधाता ने तेरे भाग्य में ज्ञान और वैराग्य नही लिखा। इन दुष्कल्पनाओं ने गायत्री को इतना मर्माहत किया कि पश्चात्ताप, आत्मोद्धार और परमार्थ की सारी सदिच्छाएँ लुप्त हो गयी। उसने उन्मत्त नेत्रों से नीचे की ओर देखा और तब जैसे कोई चोट लाया हुआ पक्षी दोनों डैना फैला वृक्ष से गिरता है वह दोनों हाथ फैलाये शिखर पर से गिर पड़ी। नीचे एक गहरा कुंड था। उसने उसकी अस्थियों को संसार के निर्दय कटाक्षो से बचाने के लिए अपने अन्तस्थल के अपार अन्धकार में छिपा लिया।



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लाला प्रभाशंकर ने भविष्य-चिन्ता का पाठ न पढ़ा था। 'कल' की चिन्ता उन्हें कभी न सताती थी। उनका समस्त जीवन विलास और कुल-मर्यादा की रक्षा में व्यतीत हुआ था। खिलाना, खाना और नाम के लिए मर जाना—यही उनके जीवन के ध्येय थे। उन्होने सदैव इसी त्रिमूर्ति की आराधना की थी और अपनी वंशगत