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प्रेमाश्रम

सम्पत्ति का अधिंकाश बर्बाद कर चुकने पर भी वह अपने व्यावहारिक नियमों में संशोघन करने की जरूरत नहीं समझते थे, या समझते थे तो अब किसी नये मार्ग पर चलना उनके लिए असाध्य था। वह एक उदार, गौरवशील पुरुष थे। सम्पत्ति उनकी दृष्टि में मर्यादा पालन का एक संघिन मात्र थी। इससे श्रीवृद्धि भी हो सकती है, धन से धन की उन्नति भी हो सकती है, यह उनके ध्यान में भी नहीं आया था। चिन्ताओं को वह तुच्छ समझते थे, शायद इसीलिए कि उनका निवारण करने के लिए ज्यादा से ज्यादा अपने महाजन के द्वार तक जाना पड़ता था। उनका जो समय और घन मेहमानों के आदर-सत्कार में लगता था उसी को वह श्रेयस्कर समझते थे। दान-दक्षिणा के शुभ अवसर आते तो उनकी हिम्मत आसमान पर जा पहुँचती थी। उस नशे में उन्हें इसकी सुध न रहती थी कि फिर क्या होगा, और काम कैसे चलेंगे? यह वही बहू का ही काम था कि इस चढी हुई नदी को थामे। वह रुपये को उनकी आँखो से इस तरह बचती थी जैसे दीपक को हवा से बचाते हैं। वह बेधड़क कह देती थी, अब यहाँ कुछ नहीं है। लाला जी उसे धिक्कारने लगते, दुष्टा, अभागिनी, तुच्छ हृदया, जो कुछ मुँह में आता कहते, पर वह टस-से-मस न होती थी। अगर वह सदैव इस नीति पर चल सकती तो अब तक जायदाद बची रहती, पर लाला साहब ऐसे अवसरों पर कौशल से काम लेते है वह विनय के महत्व से अनभिज्ञ नहीं थे। वही बहू उनके कोप का सामना कर सकती थी, पर उनके मुदु वचनों में हार जाती।

प्रेमशंकर की जमानत के अवसर पर लाला प्रभाशंकर ने जौ रुपये कर्ज लिये थे, उसका अधिकांश उसके पास बेच रहा था। वह रुपये उन्होनें महाजन को लौटा कर न दिये। शायद ऋण-धन को वह अपनी कमाई समझते थे। घन-प्राप्ति का कोई अन्य उपाय उन्हें ज्ञात ही न था। बहुत दिनों के बाद इतने रुपये एक मुश्त उन्हें मिले थे—मानों भाग्य सूर्य उदय हो गया। आत्मीय जनों और मित्रों के यहाँ तोहफे और सौगात जाने लगे, मित्रों की दावते होने लगी। लाला जी पाक-कला सिद्धहस्त थे। उनका निज रचित एक ग्रन्थ था जिसमे नाना प्रकार के व्यजनो के बनाने की विधि लिखी हुई थी। वह विद्या उन्होंने बहुत खर्च करके हलवाइयों और बावर्चीयों से प्राप्त की थी। वह निमकौड़ियों की ऐसी स्वादिष्ट खीर पका सकते थे कि बादाम का धोखा हो। बाल विषाक्त मिर्चा का ऐसा हलवा बना सकते थे कि मोहनभोग का भ्रम हो। अमि की गुठलियो का कबाब बना कर उन्होने अपने कितने ही रसज्ञ मित्रो को धोखा दे दिया था। उनका लिसोडा का मुरब्बा अगर के मुरने से भी बाजी मार ले जाता था। यद्यपि इन पदार्थों को तैयार करने मे धन का अपव्यय होता था, सिर मगचन भी बहुत करना पड़ता था और नक्स-नक्ल ही रहती थी, लेकिन लाला जी इस विषय में पूरे कवि थे जिनके लिए सुहृदयजनों की प्रशंसा ही सब से बड़ी पुरस्कार है। अबकी कई साल के बाद उन्होने अपने बड़े भाई की जयन्ती हौसले के साथ की। भोज और दावत की हफ्तों तक धूम रही। शहर में एक से एक गप्य-मान्य सज्जन पड़े हुए थे, पर कोई उनसे टक्कर लेने का साहस न कर सकता था।