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प्रेमाश्रम

तक थोड़ी सी भवरल चटनी बची हुई थी। कुछ और न मिलता तो सब की नजर बचर उसमे से एक चम्मच निकाल कर चाट जाते। विडम्बना यह थी कि इस दुख में कोई उनका साथी, कोई हमदर्द न था। बड़ी बहू से अगर कभी डरते-डरते अच्छी चीजें बनाने को कहते तो वह या तो टाल जाती या झुंझला कर कह बैठती--तुम्हारी जीभ भी लड़को की तरह चटोरी है, जब देखो जाने की ही फिक्र। सारी जायदाद हलुवै और पुलाव की भेंट कर दी और अब तक तस्कीन न हुई। अब क्या रखा है? बेचारे लाला साहब यह झिड़कियाँ सुन कर लज्जित हो जाते। प्रेमियों को प्रेमिका की चर्चा से शान्ति प्राप्ति होती है; किन्तु खेद यह था कि यह कोई वह चर्चा सुनानेवाला भी न था।

अन्त को यहाँ तक नौबत पहुँची कि वह खचेवाल को बुलाते और उनसे चाटके दोनें लेकर घर के किसी कोने में जा बैठते बौर चुपचाप मजे ले-ले कर खाते। पहले चाट की ओर वह आँख उठा कर ताकते भी न थे, पर, अब वह शान न थी। डेढ़-दो महीने तक उनका यही ढंग रहा, पर टूट पूँजिये खचैवाले वादों पर कब तक रहते! उनके तकाजे होने लगे। लाला जी पहले तो उनकी विचित्र पुकार पर कान लगाये रहते थे, अब उनकी आवाज सुनते ही छिपने के लिए बिल ढूंढने लगते। उनके बादे अब सुनिश्चित न होते थे, उनमें विनय और अविश्वास की मात्रा अधिक होतीं थी। मालूम नहीं इन तकाजो से उन्हें कब तक मुंह छिपाना पड़ता, लेकिन संयोग से उनके पूरे करने की एक विधि उपस्थित हो गयी। श्रद्धा ने एक दिन उन्हें बाजार से दो जोड़ी साडियां लाने के लिए दाम दिया। वह साड़ियाँ उधार लायें और रुपये खोंचेवालो को देकर गला छुड़ाया। बजाज की ओर से ऐसे दुराग्रह पूर्ण और निन्दास्पद तकाजो की आशंका न थी। उसे बरसो बादो पर टाला जा सकता था, मगर उक्त दिन से चाटवालों ने उनके द्वार पर आना ही छोड़ दिया।

लेकिन चाट बुरी लत है। अच्छे दिनों मे वह गले की जंजीर है, किन्तु बुरे दिनों में तो वह पैनी छुरी हो जाती है जो आत्म-सम्मान और लज्जा का तसमा भी नहीं छोड़ती। माघ का महीना, सर्दी का यह हाल था कि नाड़ियों में रक्त जमा जाता था। लाला प्रभाशंकर नित्य वायु सेवन के बहाने प्रेमशंकर के पास जा पहुँचते और देशकाल के समाचार सुनते। मौका पाते ही किसी न किसी स्वादिष्ट पदार्थ की चर्चा छेड़ देते, उस समय की कथा कहने लगते जब वह चीज खायी थी, मित्रों ने उस पर क्या-क्या टिप्पणियां की थी। प्रेमशंकर उनका इशारा समझ जाते और शीलमणि से वह पदार्थ बनवा कर लाते, लेकिन प्रभाशंकर की स्वाद लिप्सा कितनी दारुण थी इसका उन्हें ज्ञान न था। अतएव कभी-कभी लाला जी का मनोरथ वहाँ भी पूरा न होता। तब घर आते समय वह सीधी राह से न आते। स्वाद तृष्णा उन्हे नानबाइयों के मुहल्ले में ले जाती। प्याज और मसालो की सुगन्ध से उनकी लोलुप आत्मा तृप्त होती थी। कितना करुणाजनक दृश्य था! सत्तर साल का बुढ़ा, उच्च कुल मर्यादा पर जान देनेवाला पुरुष, गंध से रस का आनन्द उठाने के लिए घंटो नानबाइयों की गली में चक्कर लगाया