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प्रेमाश्रम

कारी वर्ग ठोक उल्टे चलते हैं, ये पहले एक धारणा स्थिर कर लेते हैं और तब उसको सिद्ध करने के लिए साक्षियों और प्रमाणों की तलाश करते हैं। स्पष्ट है कि ऐसी दशा में वह कार्य से कारण की ओर चलते हैं और अपनी मनोनीत धारणा में कोई संशोधन करने के बदले प्रमाणो को ही तोड-मरोड़ कर अपनी कल्पनाओ के साँचे में ढाल देते है। यह उल्टी चाल क्यो चली जाती है? इसका अनुमान करना कठिन है; पर प्रस्तुत अभियोग में कठिन नही। एक समूह जितना भार सँभाल सकता है उतना एक व्यक्ति के लिए असाध्य है।

प्रभाशकर ने चिन्ता भाव से कहा--यह तो खुला हुआ आक्षेप है। पुलिस से जवाब तो न तलव होगा ?

प्रेम--इन आक्षेपों को कौन पूछता है? इन पर कुछ ध्यान दिया जाये तो पुलिस कब की सुधर गयी होती।

इतने में ज्वालासिंह आते हुए दिखायी दिये। प्रेमशकर ने कहा---चाचा साहव कहते हैं कि विजय का उत्सव करना चाहिए।

ज्वाला--मेरी भी इच्छा है।



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वाल्यावस्था के पश्चात् ऐसा समय आता है जब उद्दडता की घुन सिर पर सवार हो जाती है। इसमे युवाकाल की सुनिश्चित इच्छा नहीं होती, उसकी जगह एक विशाल आशावादिता है जो दुर्लभ को सरल और असाध्य को मुँह का कौर समझती है। भाँति-भाँति की मृदु-कल्पनाएँ चित्त को आन्दोलित करती रहती हैं। सैलानीपन का भूत सा चढा रहता है। कभी जी में आया है कि रेलगाड़ी में बैठ कर देखूँ कि कहाँ तक जाती है। अर्थी को देख कर उसके साथ श्मशान तक जाते हैं कि वहाँ क्या होता है। मदारी का खेल देख कर जी में उत्कठा होती है कि हमें भी गले में झोली लटकायें देश-विदेश घूमते और ऐसे ही तमाशे दिखाते। अपनी क्षमता पर ऐसा विश्वास होता है कि बाधाएँ ध्यान में भी नहीं आती। ऐसी सरलता जो अलाउद्दीन के चिराग को ढूँढ निकालना चाहती है। इस काल में अपनी योग्यता की सीमाएँ अपरिमित होती हैं। विद्या क्षेत्र में हम तिलक को पीछे हटा देते हैं, रणक्षेत्र में नेपोलियन से आगे बढे जाते हैं। कभी जटाधारी योग बनते हैं, कभी ताता से भी धनवान् हो जाते है। हमें इस अवस्था में फकीरों और साधुओं पर ऐसी श्रद्धा होती है जो उनकी विभूति को कामधेनु समझती हैं। तेजशकर और पद्मशकर दोनों ही सैलानी थे। घर पर कोई देख-भाल करनेवाला न था जो उन्हें उत्तेजनाओ से दूर रखता, उनकी सजीवता को, उनकी अबाध्य कल्पनाओं को सुविचार की ओर कर सकता। लाला प्रभाशकर उन्हें पाठशाला में भरती करके ज्यादा देख-भाल अनावश्यक समझते थे। दोनों लडके घर से स्कूल को चलते; लेकिन रास्ते में नदी के तट पर घूमते, बैड सुनते या सेना की कवायद देखने की इच्छा उन्हें रोक लिया करतीं। किताबो से दोनों को अरुचि थी और दोनों एक ही

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