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प्रेमाश्रम


जब अँधेरा हुआ तो तेजशंकर घर में से एक तलवार निकाल लाया जिसे लाला जी में हाल ही में जयपुर से मंगाया था। दोनों ने कमरे का द्वार बन्द कर उसे मिट्टी के तेल ने खूब साफ किया, उसे पत्थर पर गड़ा, यहाँ तक कि उनमें चिनगारियाँ निकलने लगी। तब उसे बिछावन के नीचे छिपा कर दोनों बाजार की चैर करने निकल गये। लौटे तो नौ बज गये थे। बड़ी बहू के बहुत अनुरोध करने पर दोनों ने कुछ सूक्ष्म भोजन किया और तब अपने कमरे में लोगों के निद्रामग्न हो जाने का इन्तजार करने लगे। ज्यों ज्यों समय निकट आता था उनका आशा-दीपक भय-तिमिर में विलुप्त होता जाता था। इस सनय उनकी दशा कुछ उन अपराधी की ही थी जिसकी फाँसी का समयं प्रति क्षण निकट होता जाता हौ। भाँति-भंति की शंकाएँ और दुष्कल्पनाएँ रही थीं, किन्तु इस आँची और तूफान में भी एक नौका का स्पष्ट चिह्न दूर से दिन्वाय देता था जिससे उनकी हिम्मत वैध जाती थी। तेज शंकर चिन्तित और गमौर था और पद्मशंकर की मरल, आशामय बातो का जवाब तक न देता था।

निश्चित समय आ पहुँचा तो दोनों घर से निकले। माघ का महीना, तुषारवेष्टित वायु हड्डियों में चुभती थी। हाथ-पाँच अकड़े जाते थे। तेजशंकर ने तलवार को अपनी चादर के नीचे छिपा लिया और दोनों चले, जैसे कोई मन्द बुद्धि चालक परीक्षा भवन की ओर चले। पग-पग पर वे शंका-विह्वल हो कर ठिठक जाते, कलेजा मजबूत करके आगे बढ़ते। यहाँ तक कि कई बार उन्होंने लौटने का इरादा किया, लेकिन उन्तालीस दिन की तपस्या के बाद वरदान मिलने के दिन हिम्मत हार जाना अक्षम्य दुर्बलता और भीत्ता थी। अब तो चाहे जो हो, यह अन्तिम परीक्षा अनिवार्य थी। इस तरह डरलें हिचकते दोन घाट पर पहुँच गये। रास्ते में किनी के मुँह ने एक अब्द भी न निकला।

अमावस की रात थी। आँखों का होना न होना बराबर था। तारागणे भौं बादलों में मुंह छिपाये हुए थे। अन्धकार में जल और वीरू, पृथ्वी और आकाश को समान कर दिया था। केवल जल की मधुर-बनि गंगा का पता देती थी। ऐसा सन्नाटा छाया हुआ था कि जल-नाद भी उसमें निमग्न हो जाता था। ऐसा जान पड़ता था कि अभी शून्य के गर्भ में पड़ी हुई है। अनन्त जीवन के दोनों आराधक पग-पगपर ठोकरें खाते शंका-रचित बाधाओं से पग-पग पर चौंकते नदी के किनारे पहुँचे और जल में उतरे।। पानी बर्फ हो रहा था। उनके मारे अंग शिथि हो गये। स्नान करके दोनों रेत पर बैठ गये और मन्त्र का जाप करने लगे। लेकिन आश्चर्य यह था कि आज उन्हें कोई ऐसा दृष्य ने दिखायी दिया जिसे मैं देख न चुके हो, न कोई ऐसी आवाजें सुनायी दी जो वे सुन न चुके हो, कोई असाधारण घटना न हुई। सरदी ने शंकाओं को भी शान्त कर दिया था। विषम कल्पनाएँ भी निर्जीव हो गयी थी। दोनों डर है थे कि आज न जाने कैसी-कैसी विकराल मूर्तियाँ विवाबी देंगी, प्रेत न जाने किन मन्त्री से आघात करेंगे। न जाने प्राण बचेंगे या जायेंगे? लेकिन आज और दिन से सस्ते छूट गये।