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प्रेमाश्रम


अब तेजशंकर को शक होने लगी, विश्वास की नीव हिलने लगी। इस पुस्तक मे स्पष्ट लिखा था कि सिर गर्दन से अलग होते ही तुरन्त उसमे चिमट जाता है और यदि इस क्रिया में कुछ विलम्ब हों तो भैरव मन्त्र से फूके हुए पानी का एक चुल्लू काफी है। यहाँ इतनी देर हो गयी और अभी तक कुछ भी असर न हुआ। यह बात क्या है? मगर यह असम्भव है कि मन्त्र निष्फल हो। कितने लोगो ने इस मन्त्र को सिद्ध किया है। नहीं, घबराने की कोई बात नहीं, अभी जान आयी जाती है।

उसने तीन-चार मिनट तक और इन्तजार किया; पर लाश ज्यों की त्यो शान्त, शिथिल पड़ी हुई थी। तब उसने फिर गंगाजल छिड़का, फिर मन्त्र पढ़ा, किन्तु लाश न उठी। उसने चिल्लाकर कहा--हा ईश्वर। अब क्या करूं? विश्वास का दीपक बुझ गया। उसने निराश भाव से नदी की और देखा। लहरे दाढे मार-मार कर रोती हुई जान पड़ी। वृक्ष शोक में सिर धुनते हुए मालूम हुए। उसके कठ से बलात् अन्दन ध्वनि निकल आयी, वह चीख मार कर रोने लगा। अब उसे ज्ञान हुआ कि मैंने कैसा घोर अनर्थ किया। अनन्त जीवन की सिद्धि कितनी उद्भ्रात, कितनी मिथ्या थीं। हा! मैं कितना अन्या, कितना मन्द बुद्धि, कितना उद्दड हूँ। हा! प्राणी से प्यारे पद्म, मैंने मिथ्या भक्ति की धुन में अपने ही हाथो से, इन्ही निर्दय हाथो से, तुम्हारी गर्दन पर तलवार चलायी।! मैंने तुम्हारे प्राण लिए। मुझ सा पापी और अभागी कौन होगा? अब कौन सा मुँह ले कर घर जाऊँ? कौन सा मुंह दुनिया को दिखाऊँ? अब जीवन वृथा है। तुम मुझे प्राणो से भी प्यारे थे। अव तुम्हे कैसे देखूँगा, तुम्हे कैसे पाऊंगा?

तेजशंकर कई मिनट तक इन्ही शौकमय विचारों से विह्वल हो कर खड़ा रोता रहा। अभी एक क्षण पहले उसके दिल में क्या-क्या इरादे थे, कैसी-कैसी अभिलाषाएँ थी? बह सब इरादे मिट्टी में मिल गये? आह। जिसे धूर्त पापी ने यह किताब लिखी है। उसे पाता तो इसी तलवार से उसकी गर्दन काट लेता। उसके भ्रम जाल में पड़ कर मैंने अपना सर्वनाश किया।

हाय! अभी तक लाश में जान नही आयी। उसे उसकी ओर ताकते हुए अब भय होता था।

नैराश्य-व्यया, शोकाघात, परिणाम-भय, प्रेमोंदगार, ग्लानि–इन सभी भावो ने उसके हृदय को कुचल दिया।

तिस पर भी अभी तक उसकी आशाओं का प्राणान्त न हुआ था। उसने एक बार डरते-डरते कनखियों से लाश को देखा, पर अब भी उसमें प्राण-प्रवेश का चिह्न न दिखायी दिया तो आशाओं का अन्तिम सूत्र भी टूट गया, धैर्य ने साथ छोड़ दिया।

उसने एक बार निराश होकर आकाश की ओर देखा। भाई की लाश पर अन्तिम दृष्टि डाली तब सँभल कर बैठ गया और वही तलवार अपने गले पर फेर दी। रक्त की फुवारें छूटी, शरीर तड़पने लगा, पुतलियाँ फैल गयी। बलिदान पूरा हो गया। मिथ्या विश्वास ने दो लहलहाते हुए जीव-पुष्प को पैर से मसल दिया।