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प्रेमाश्रम


की बेटी हो। तुम्हारे बाप के पास तो लाखों की सम्पत्ति है, क्यों नहीं उसमे थोड़ी-सी हमें दे देते, वह तो कभी बात नहीं पूछते और तुम्हारे पैरों तले गंगा बहती है।

विद्या-पुरुषार्थी लोग दूसरों की सम्पत्ति पर मुँह नहीं फैलाते। अपने बाहुबल का भरोसा रखते है।

ज्ञान-लजाती तो नहीं हो, ऊपर से बढ़-बढ़ कर बाते करती हो। यह क्यों नहीं कहती कि घर की जायदाद प्राणों से भी प्रिय होती है और उसकी रक्षा प्राणों से भी अधिक की जाती है? नहीं तो ढाई लाख सालाना जिसके घर में आता हो, उसके लिए बेटी-दामाद पर दो-चार हजार खर्च कर देना कौन-सी बड़ी बात है? लाला साहब तो पैसे को यो दाँतों से पकड़ते है और तुम इतनी उदार बनती हो, मानो जायदाद की कुछ मूल्य ही नहीं।

इतने में श्रद्धा आ गयी और ज्ञानशंकर घर के बंटवारे के विषय में उससे बातें करने लगे।



लाला प्रभाशंकर का क्रोध ज्यों ही शांत हुआ वह अपने कटु वाक्यों पर बहुत लज्जित हुए। बड़ी बहू की तीखी बातें ज्यों ज्यों उन्हें याद आती थी ग्लानि और भी बढ़ती जाती थी। जिस भाई के प्रेम और अनुराग से उनको हृदय परिपूर्ण था, जिसके मृत्युशोक का घाव अभी भरने न पाया था, जिसका स्मरण आते ही आँखो से अश्रुधारा बहने लगती थी उसके प्राणाधार पुत्र के साथ उन्हें अपना यह बर्ताव बड़ी कृतघ्नता का मालूम होता था। रात को उन्होंने कुछ न खाया। सिर-पीड़ा का बहाना करके लेट रहें। कमरे में धुंधला प्रकाश था। उन्हें ऐसा जान पड़ा, मानों लाला जटाशंकर द्वार पर खड़े उनकी और तिरस्कार की दृष्टि से देख रहे है। वह घबड़ा कर उठ बैठे, साँस वेग से चलने लगीं। बड़ प्रबल इच्छा हुई कि इसी दम चल कर ज्ञानशंकर से क्षमा माँगू, किन्तु रात ज्यादा हो गयी थी, बेचारे एक ठंठी साँस ले कर फिर लेट रहे। हा! जिस भाई ने जिन्दगी भर में मेरी ओर कड़ी निगाह से भी नहीं देखा उसकी आत्मा को मेरे कारण ऐसा विषाद हो। मैं कितना अत्याचारी, कितनी सुकीर्ण हृदय, कितना कुटिल प्रकृति हूँ।

प्रातः काल उन्होंने बड़ी बहू से पूछा, रात ज्ञानू ने कुछ खाया था या नहीं?

बड़ी बहू--रात चूल्हा ही नहीं जला, किसी ने भी नहीं खाया।

प्रभाशंकर--तुम लोग खाओं या न खाओ, लेकिन उसे क्यों भूखा मारती हो, भला ज्ञानू अपने मन में क्या कहता होगा। मुझे कितना नीच समझ रहा होगा।

बड़ी बहू-नहीं तो अब तक मानों वह तुम्हें देवता समझता था। तुम्हारी आँखो पर पर्दा पड़ा होगा, लेकिन मैं इस छोकरे का रुख साल भर से देख रही हूँ। अचरज़ यही है कि वह अब तक कैसे चुप रहा? आखिर वह क्या समझ कर अलग हो रहा है। यही न कि हम लोग परायें हैं। उसे इसकी लेशमात्र भी परवा नहीं कि इन लोगों का