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प्रेमाश्रम

मील पर था। नौ बजते-बजते पहुँच गये। थाने में सन्नाटा था। केवल मुन्शी जी फर्श पर बैठे लिख रहे थे। प्रेमशंकर ने उनसे कहा-आपको तकलीफ तो होगी, पर जरा दारोगा जी को इत्तला कर दीजिए कि एक आदमी आपसे मिलने आया है। मुन्शी जी ने प्रेमशंकर को सिर से पाँव तक देखा, तब लपक कर उठे, उनके लिए एक कुर्सी निकाल कर रख दी और पूछा, जनाब का नाम बाबू प्रेमशंकर तो नहीं हैं?

प्रेमशंकर—जी हाँ, मेरा ही नाम है।

मुन्शी—आप खूब आये। दारोगा जी अभी आपका ही जिक्र कर रहे थे। आपका अक्सर जिक्र किया करते हैं। चलिए मैं आपके साथ चलता हूँ। कानिस्टेबिल सब उन्हीं की खिदमत में हाजिर हैं। कई दिन से बहुत बीमार हैं।

प्रेम—बीमार हैं? क्या शिकायत है?

मुन्शी—जाहिर से तो बुखार है, पर अन्दर का हाल कौन जाने? हालत बहुत बदतर हो रही हैं। जिस दिन से दोनों छोटे भाइयो की नावक्त मौत की खबर सुनी उसी दिन से बुखार आया। उस दिन से फिर थाने में नहीं आये। घर से बाहर निकलने की नौबत न आयी। पहले भी थाने में बहुत कम आते थे, नशे में डूबे पड़े रहते थे, ज्यादा नहीं तो तीन-चार बोतल रोजाना जरूर पी जाते होगे। लेकिन इन पन्द्रह दिनों में एक घूँट भी नहीं पी। खाने की तरफ ताकते ही नहीं। या तो बुखार में बेहोश पड़े रहते हैं या तबीयत जरा हल्की हुई तो रोया करते हैं। ऐसा मालूम होता है कि फालिज गिर गयी हैं, करवट तक नहीं बदल सकते। डाक्टरों का ताँता लगा हुआ है, मगर कोई फायदा नहीं होता। सुना आप कुछ हिकमन करते हैं। देखिए शायद आपकी दवा कारगर हो जाय। बड़ा अनमोल आदमी था। हम लोगों को तो ऐसा सदमा हो रहा हैं जैसे कोई अपना अजीज उठा जाता हो। पैसे की मुहब्बत छू तक नहीं गयी थी। हजारों रुपये माहवार लाते थे और सब का सब अमलो के हाथों में रख देते थे। रोजाना शराब मिलती जाय बस, और कोई हवस न थी। किसी मातहन से गलती हो जाय, पर कभी शिकायत न करते थे, बल्कि सारा इलज़ाम अपने सिर ले लेते थे। क्या मजाल कि कोई हाकिम उनके मातहतो को तिर्छी निगाह से भी देख सके, सीना-सीपर हो जाते थे। मातहतों की शादी और गमी मै इस तरह शरीक होते थे, जैसे कोई अपना अजीज हो। कई कानिस्टेबिलो की लड़की की शादियाँ अपने खर्चे से करा दीं, उनके लड़कों की तालीम की फीस अपने पास से देते थे, अपनी सख्ती के लिए सारे इलाके में बदनाम थे। सारा इलाका उनका दुश्मन था, मगर थानेवाले चैन करते थे। हम गरीबो को ऐसा गरीब-परवर और हमदर्द अफसर न मिलेगा।

मुन्शी जी ने ऐसे अनुरक्त भाव से यश गान किया कि प्रेमशंकर गद्गद् हो गए। वह दयाशंकर को भी लोभी, कुटिल, स्वार्थी समझते थे कि जिसके अत्याचारो से इलाके में हाहाकार मचा हुआ था। जो कुल का द्रोही, कुपुत्र और व्यभिचारी था, जिसने अपनी विलसिता और विषयवासना की धुन में माता-पिता, भाई-बहन यहाँ तक कि अपनी पत्नी से मुँह फेर लिया था। उनकी दृष्टि में वह एक बैशर्म, पतित, हृदय शून्य