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प्रेमाश्रम

आदमी था। यह गुणानुवाद सुन कर उन्हें अपनी संकीर्णता पर बहुत खेद हुआ। वह मन में अपना तिरस्कार करने लगे। उन्हें फिर आत्मिक यन्त्रणा मिली-हा। मुझमे कितना अहंकार है। मैं कितनी जल्द भूल जाता हैं कि यह विराट जगत् अनन्त ज्योति से प्रकाशमय हो रहा है। इसका एक-एक परमाणु उसी ज्योति से आलोकित है। यहाँ किसी मनुष्य को नीचा या पतित समझना ऐसा पाप है जिसका प्रायश्चित नही। मुन्शी जी से पूछा- डाक्टरों ने कुछ तशखीस नही की?

मुन्शी जी ने उपेक्षा भाव से कहा-डाक्टरों की कुछ न पूछिए, कोई कुछ बताता है, कोई कुछ। या तो उन्हें खुद ही इल्म नहीं या गौर से देखते ही नहीं। उन्हें तो अपनी फीस से काम है। आइए, अन्दर चले आइए, यही मकान है।

प्रेमशंकर अन्दर गये तो कानिस्टेबिलों की भीड़ लगी हुई थीं। कोई रो रहा था, कोई उदास, कोई मलिन-मुख खड़ा था, कोई पखा झलता था। कमरे में सन्नाटा था। प्रेमशंकर को देखते ही सभी ने सलाम किया और कातर नेत्रो से उनकी ओर देखने लगे। दयाशंकर चारपाई पर पड़े हुए थे, चेहरा पीला हो गया था और शरीर सूखकर काँटा हो गया था। मानो किसी हरे-भरे खेत को टिड्डियो ने चर लिया हो। आँगने बन्द थी, माथे पर पसीने की बुंदे पड़ी हुई थी और श्वास-क्रिया में एक चिन्ताजनक शिथिलता थी। प्रेमशंकर यह शोकमय दृश्य देख कर तड़प उठे, चारपाई के निकट जा कर दयाशंकर के माथे पर हाथ रखा और बोले-–भैया?

दयाशंकर ने आँखें खोली और प्रेमशंकर को गौर से देखा, मानो किसी भूली हुई सूरत को याद करने की चेष्टा कर रहे हैं। तब बड़े शान्तिभाव से बोले-तुम हो प्रेमशंकर? खूब आये। तुम्हे देखने की बड़ी इच्छा थीं। कई बार तुमसे मिलने का इरादा किया, पर शर्म के मारे हिम्मत न पड़ी। लाला जी तो नहीं आये? उनसे भी एकदार भेट हो जाती तो अच्छा होता, न जाने फिर दर्शन हो या न हो।

प्रेम-वह आने को तैयार थे, पर मैंने ही उन्हें रोक दिया। मुझे तुम्हारी हालत मालूम न थी।

दया—अच्छा किया। इतनी दूर एक्के पर आने में उन्हे कष्ट होता। वह मेरा मुंह न देखे यहीं अच्छा है। मुझे देख कर कौन उनकी छाती हुलसेगी?

यह कह कर वह चुप हो गये, ज्यादा बोलने की शक्ति न थी, दम ले कर बोले-- क्यों प्रेम, संसार में मुझ सा अभागा और भी कोई होगा? यह सब मेरे ही कर्मों का फल है। मैं ही वंश का द्रोही हूँ। मैं क्या जानता था कि पापी के पापों का दंड इतना बड़ा होता है। मुझे अगर किसी की कुछ मुहब्बत थी तो दोनो लड़कों की। मेरे पापो ने भैरव बन कर उन

उनकी आँखो मे आँसू बहने लगे। मूर्छा सी आ गयीं। आध घंटे तक इतनी अचेत दशा में पड़े रहे। साँस प्रतिक्षण घीमी होती जाती थी। प्रेमशंकर पछता रहे थे, यह हाल मुझे पहले न मालूम हुआ, नहीं तो डाक्टर प्रियनाथ को साथ लेता आता। यहाँ तार घर तो है। क्यों न उन्हें तार दे दूँ? वह इसे मेरा काम समझ कर