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प्रेमाश्रम


दया--ऐसा जान पड़ता है कि किसी ने जलती हुई रेत से उठा कर वृक्ष की छाँह में लिटा दिया हो।

प्रिय-कुछ भूख मालूम होती हैं?

दया-जी नहीं, प्यास लगी है।”

प्रिय-तो आप थोड़ा सा गर्म दूध पी लें। मैं इस वक्त जाता हूँ। कल आठ बजे तक आ जाऊँगा।

दयाशंकर ने मुन्शी जी की तरफ देख कर कहा-मेरा सन्दूक खोलिए और उसमें जो कुछ हो ला कर डाक्टर साहब के पैरों पर रख दीजिए। बाबूजी, यह रकम कुछ नहीं है, पर आप इसे कबूल करे।

प्रिय--अभी आप चगें तो हो जायें, मेरा हिसाब फिर हो जायेगा।

दया- मैं चंगा हो गया, मौत के मुंह से निकल आया। कल तक भरने का ही जी चाहता था, लेकिन अब जीने की इच्छा है। यह फीस नहीं है। मैं आपको फीस देने के लायक नहीं हूँ। दैहिक रोग-निवृत्ति की फीस हो सकती हैं, लेकिन मुझे ज्ञात हो रहा है कि आपने आत्मिक उद्धार कर दिया है। इसकी फीस वह एहसान है जो जीवन-पर्यंन्त मेरे सिर पर रहेगा और ईश्वर ने चाहा तो आपको इस पापी जीवन को मौत के पन्ने से बचा लेने का दुख न होगा।

प्रियनाथ ने फीस न ली, चले गये। प्रेमशंकर थोड़ी देर बैठे रहे। जब दयाशंकर दूध पी कर फिर सो गये तब वह बाहर निकल कर टहलने लगे। अकस्मात् उन्हें लाला प्रभाशंकर एक्कै पर आते हुए दिखायी दिए। निकट आते ही वह एक्के से उतरे और कम्पित स्वर से बोले---बेटा, बताओ दयाशंकर की क्या हालत है? तुम्हारे चले आने के बाद यहाँ से एक चौकीदार मेरे पास पहुँचा। उसने कुछ ऐसी बुरी खबर सुनायी कि होश उड़ गये, उसी वक्त बल खड़ा हुआ। घर में हाहाकार मचा हुआ है। सचसच बताओ बेटा, क्या हाल है।

प्रेम अब तो तबीअत बहुत कुछ सँभल गयी है, कोई चिन्ता की बात नहीं, पर जब मैं आया था तो वास्तव में हालत खराब थी। खैरियत यह हो गयीं कि डाक्टर प्रियनाथ आ गये। उनकी दवा ने जादू का सा असर किया। अब सो रहे हैं।

प्रभा--बेटा, चलो, जरा देख लें, चित्त बहुत व्याकुल है।

प्रेम-—आपको देख कर शायद वह रोने लगे।

प्रभाशंकर ने बड़ी नम्रता से कहा--बेटा, मैं जरा भी न बोलूंगा, बस एक आँख देख कर चला जाऊँगा। जी बहुत घबराया हुआ है।

प्रेम–आइए, मगर चित्त को शान्त रखिएगा। अगर उन्हें जरा भी आहट मिल गयी तो दिन भर की मेहनत निष्फल हो जायगी।

प्रभा--- भैया, कसम खाता हूँ, जरा भी न बोलूंगा। बस, दूर से एक आँख देख कर चला जाऊँगा।

प्रेमशंकर मजबूर हो गये। लाला जी को लिए हुए दयाशंकर के कमरे में गये।