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प्रेमाश्रम

प्रभाशंकर ने चौखट से ही इस तरह डरते-डरते भीतर झांका जैसे कोई बालक घटा की ओर देखता है कि कही बिजली न चमक जाय। पर दयाशंकर की दशा देखते। ही प्रेमोद्गार से विवश हो कर वह जोर से चिल्ला उठे और हाय बेटा। कह कर उनकी छाती से चिमट गये।

प्रेमशंकर ने तुरन्त उपेक्षा भाव से उनका हाथ पकड़ा और खीच कर कमरे के बाहर लाये।

दयाशकर ने चौक कर पूछा, कौन था? दादा जी आये हैं क्या?

प्रेमशंकर आप आराम से लेटे। इस वक्त बात-चीत करने से बेचैनी बढ़ जायगी।

दया- नहीं, मुझे एक क्षण के लिए उठा कर बिठा दो। मैं उनके चरणो पर सिर रखना चाहता हूँ।

प्रेम-इस वक्त नहीं। कल इतमीनान से मिलिएगा।

यह कह कर प्रेमशंकर बाहर चले आये। प्रभाशंकर बरामदे में खड़े हो रहे थे। बोले बेटा, नाराज न हो, मैंने बहुत रोका, पर दिल काबू में न रहा। इस समय मेरी दशा उस टूटी नावे पर बैठे हुए मुसाफिर की सी है जिसके लिए हवा का एक झौंका भी मौत के थप्पड़ के समान है। सच-सच बताओ, डाक्टर साहब क्या कहते थे।

प्रेम उनके विचार में अब कोई चिन्ता की बात नहीं है। लक्षणों से भी यही प्रकट होता है।

प्रभा-ईश्वर उनको कल्याण करे, पर मुझे तो तब ही इतमीनान होगा जब यह उठ बैठेंगे। यह इनके ग्रह का साल हैं।

दोनो आदमी बाहर आकर सायबान में बैठे। दोनों अपने विचार में मग्न थे। थोड़ी देर के बाद प्रभाशंकर बोले-हमारा यह कितना बड़ा अन्याय है कि अपनी सन्तान में उन्ही कुसंस्कारो को देख कर जो हमने स्वयं मौजूद हैं उनके दुश्मन हो जाते है। दयाशंकर से मेरा केवल इसी बात पर मनमुटाव था कि वह घर की खबर क्यों नहीं लेता दुर्व्यसनों में क्यों अपनी कमाई उड़ा देता है? मेरी मदद क्यों नही करता? किन्तु मुझसे पूछो कि तुमने अपनी जिन्दगी में क्या किया? मेरी इतनी उम्र भोग विलास में ही गुजरी है। इसने अगर लुटायी तो अपनी कमाई कुटाई, बरबाद की तो अपनी कमाई बरबाद की। मैंने तो पुरखाओं की जायदाद का सफाया कर दिया। मुझे इससे बिगड़ने का कोई अधिकार न था।

थाने के कई अमले और चौकीदार आ कर बैठ गये और दयाशंकर की सहृदयता और सज्जनता की सराहना करने लगें। प्रभाशंकर उनकी बाते सुनकर गर्व से फूले जाते थे।

आठ बजे प्रेमशंकर ने जाकर फिर दवा पिलायी और वही रात भर एक आराम कुर्सी पर लेटे रहे। पलक को झपकने भी न दिया।

सबेरे प्रियनाथ आये और दयाशंकर को देखा तो प्रसन्न हो कर बोले-अब जरा भी चिन्ता नहीं है, इनकी हालत बहुत अच्छी है। एक सप्ताह में यह अपना काम