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प्रेमाश्रम

आदमी कैसे-कैसे इरादे करता है, कैसे-कैसे मनसूबै बाँधता है, किन्तु यमराज के आगे किसी की नही चलती। वह आन की आन में सारे मसूबों को भूल में मिला देता है। तीन महीने के अन्दर पाँच प्राणी चल दिये। इस तरह एक दिन मैं भी चल बसूँगी और मन की मन में ही रह जायेंगी! आठ साल से हम दोनों अपनी-अपनी टेक पर अड़े है, न वह झुकते है, न मैं दबती हूँ। जब इतने दिनों तक उन्होने प्रायश्चित नहीं किया तब अब कदापि न करेगें। उनकी आत्मा अपने पुण्य कार्यों से सन्तुष्ट है, न इसकी जरूरत समझती है न महत्त्व, अब मुझी को दबना पड़ेगा। अब मैं ही किसी विद्वान पति से पूछे कि मेरे किसी अनुष्ठान से उनका प्रायश्चित्त हो सकता है या नहीं? क्या मेरी इतने दिनों की तपस्या, गंगास्नान, पूजा-पाठ, व्रत और नियम अकारथ हो जायेगें? माना, उन्होने विदेश में कितने ही काम अपने धर्म के विरुद्ध किये, लेकिन जब से यहाँ आये है तब से तो बराबर सत्कार्य ही कर रहे है। दीनों की सेवा और पतितो के उद्धार मे दत्तचित्त रहते है। अपनी जान की भी परवाह नहीं करते। कोई बड़ा से बड़ा धर्मात्मा भी परोपकार में इतना व्यस्त न रहता होगा। उन्होने अपने को बिल्कुल मिटा दिया है। धर्म के जितने लक्षण अन्थो में लिखे हुए है वे सब उनमें मौजूद है। जिस पुरुष ने अपने मन को, अपनी इन्द्रियो को, अपनी वासना को ज्ञान-बल से जीत लिया हो क्या उसके लिए भी प्रायश्चित की जरूरत है? क्या कर्मयोग का मूल्य प्रायश्चित के बराबर नहीं कोई पुस्तक नहीं मिलती जिसमें इस तपस्या की साफ-साफ व्यवस्था की गयी हो। कोई ऐसा विद्वान नहीं दिखायी देता जो मेरी शको का समाधान करे। भगवान्, मैं क्या करूं? इन्ही दुविधाओं में पड़ीं एक दिन मर जाऊँगी और उनकी सेवा करने की अभिलाषा मन में ही रह जायेंगी। उनके साथ रह कर मेरा जीवन सार्थक हो जाता, नहीं तो इस चहारदीवारी में पड़े जीवन वृथा गँवा रही हूँ।

श्रद्धा इन्हीं विचारों में मग्न थी कि अचानक उसे द्वार पर हलचल सी सुनायी दी। खिड़की से झाँका तो नीचे सैकड़ो आदमियों की भीड़ दिखायी दी। इतने में महरी ने आ कर कहा, बहू जी, लखनपुर के जितने आदमी कैद हुए थे वह सब छूट आये है और द्वार पर खड़े बाबू जी को आशीर्वाद दे रहे है। जरा सुनो, वह बुड्ढा दाढीवाला कह रहा है, अल्लाह बाबू प्रेमशंकर को कयामत तक सलामत रख इनके साथ एक बूढा साधु भी है। सुखदास नाम है। वह बाजार से यहाँ तक रुपये पैसे लुटाता आया है। जान पड़ता है कोई बड़ी घनी आदमी है।

इतने में मायाशंकर लपका हुआ आया और बोला- बड़ी अम्माँ, लखनपुर के सब आदमी छूट आये है। बाजार में उनका जलूस निकला था। डाक्टर इफनअली, बाबू ज्वालासिंह, डाक्टर प्रियनाथ, चाची साहब, चाचा दयाशंकर और शहर के और सैकडो छोटे-बड़े आदमी जलूस के साथ थे। लाओ, दीवानखाने की कुंजी दे दो। कमरा खोल कर सबको बैठाऊँ।

श्रद्धा ने कुजी निकाल कर दे दी और सोचने लगी, इन लोगों का क्या सत्कार