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प्रेमाश्रम

करूँ कि इतने मे जयकार को गगन-व्यापी नाद सुनायी दिया--बाबू प्रेमशकर की जय। लाला दयाशंकर की जय । लाला प्रभाशकर जी जय ।

मायाशंकर फिर दौडा हुआ आया और बोला--बड़ी अम्मा, जरा ढोल मजीरा निकलवा दो, बाबा सुखदास भजन गायेगे। वह देखो, वह दाढीवाला बुड्ढा, वही कादिरखाँ है। वह जो लम्बा तगडा आदमी है, वहीं बलराज है। इसी के बाप ने गौस खाँ को मारा था ।

श्रद्धा का चेहरा आत्मोल्लास से चमक रहा था। हृदय ऐसा पुलकित हो रहा था मानो द्वार पर बरात आयी हो। मन मे भाँति-भाँति की उमगे उठ रही थी। इन लोगो को आज यही ठहरा लूँ, सबकी दावत करूँ, खूब धूमधाम से सत्यनारायण की कथा हो। प्रेमशकर के प्रति श्रद्धा का ऐसा प्रबल आवेग हो रहा था कि इसी दम जा कर उनके चरणो में लिपट जाऊँ। तुरन्त ढोल और मजीरे निकाल कर मायाशकर को दिये।

सुखदास ने ढोल गले में डाला, औरों ने मजीरे लिए, मडल बाँधकर खड़े हो गये और यह भजन गाने लगे--

'सतगुरु ने मोरी गह लई बाँह नहीं है मैं तो जात बहा ।'

माया खुशी के मारे फूला न समाता था। आ कर बोला--कादिर मियाँ खूब गाते हैं।

श्रद्धा--इन लोगों की कुछ आव-भगत करनी चाहिए।

माया--मेरा तो जी चाहता है कि सब की दावत हो। तुम अपनी तरफ से कहला दो। जो सामान चाहिए वह मुझे लिखवा दो। जा कर आदमियो को लाने के लिए भेज दूँ। यह सब बेचारे इतने सीधे, गरीब है कि मुझे तो विश्वास नहीं आता कि इन्होंने गौस खाँ को मारा होगा। बलराज है तो पूरा पहलवान, लेकिन वह भी बहुत ही सीधा मालूम होता है ।

श्रद्धा--दावत मे बडी देर लगेगी। बाजार से चीजें आयेगी, बनाते-बनाते तीसरा पहर हो जायगा। इस वक्त एक बीस रुपए की मिठाई मँगाकर जलपान करा दी। रुपये है या दूँ?

माया--रुपये बहुत है। क्या कहूँ, मुझे पहले यह बात न सूझी।

दोपहर तक भजन होता रहा। शहर के हजारो आदमी इस आनन्दोत्सव में शरीक थे। प्रेमशकर ने सबको आदर से बिठाया। इतने में बाजार से मिठाइयाँ आ गयी, लोगो ने नाश्ता किया और प्रेमशकर का यश-गान करते हुए बिदा हुए, लेकिन लखन पुरवालो को छुट्टी न मिली। श्रद्धा ने कहला भेजा कि खा-पी कर शाम को जाना। यद्यपि सब के सब घर पहुँचने के लिए उत्सुक हो रहे थे, पर यह निमन्त्रण कैसे अस्वीकार करते। लाला प्रभाकर भोजन बनवाने लगे। अब तक उन्होने कैसे बड़े आदमियों को ही अपनी व्यंजन-कला से मुग्ध किया था। आज देहातियों को भ यह सौभाग्य प्राप्त हुआ। लाला जी ऐसा स्वादयुक्त भोजन देना चाहते थे जो उन्हें तृप्त ।