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प्रेमाश्रम

गया। जब यह सब घर पहुँचेगे तो इनके घरवाले और भी आशीष देंगे। जब तक दम मे दम रहेगा, उनके हृदय से नित्य यह सदिच्छाएँ निकलती रहेगी। ऐसे यशस्वी, ऐसे श्रद्धेय पुरुष को प्रायश्चित्त की कोई जरूरत नहीं। इस सुधा-वृष्टि ने उसे पवित्र कर दिया हैं।

ग्यारह बजे थे। श्रद्धा ऊपर से उतरी और सकुचाती हुई आ कर दीवानखाने के द्वार पर खड़ी हो गयी। लैम्प जल रहा था, प्रेमशंकर किताब देख रहे थे। श्रद्धा को उनके मुखमंडल पर आत्म-गौरव की एक दिव्य ज्योति झलकती हुई दिखायी दी। उसका हृदय वाँसो उछल रहा था और आँखे आनन्द के अभु-बिन्दुओं से भरी हुई थीं। आज चौदह वर्ष के बाद उसे अपने प्राणपति की सेवा का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। अब विरहिणी श्रद्धा न थी जिसकी सारी आकाक्षाएँ मिट चुकी हो। इस समय उसका हृदय अभिलाषाओं से आन्दोलित हो रहा था, किन्तु उसके नेत्रों में तृष्णा न थी, उसके अधरों पर मृदु मुस्कान न थी। वह इस तरह नहीं आयी थी जैसे कोई नववधू अपने पति के पास आती है, वह इस तरह आयी थीं जैसे कोई उपासिका अपने इष्टदेव के सामने आती हैं, श्रद्धा और अनुराग में डूबी हुई।

वह क्षण भर द्वार पर खड़ी रही। तब जा कर प्रेमशंकर के चरणों पर गिर पड़ी।



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मानव चरित्र न बिलकुल श्यामल होता है न बिलकुल श्वेत। उसमें दोनो ही रंगों का विचित्र सम्मिश्रण होता है। स्थिति अनुकूल हुई तो वह ऋषितुल्य हो जाता है, प्रतिकूल हुई तो नराधम। वह अपनी परिस्थितियों का खिलौना मात्र है। बाबू ज्ञानशंकर अगर अब तक स्वार्थी, लोभी और संकीर्ण-हृदय थे तो वह परिस्थितियों का फल था। भूखा आदमी उस समय तक कुत्ते को कौर नहीं देता जब तक वह स्वयं सन्तुष्ट न हो जाये। अप्रसन्नता ने उनकी श्यामलता को और भी उज्ज्वल कर दिया था। उन्होंने ऐसे घर में जन्म लिया था जिसने कुल-मर्यादा की रक्षा में अपनी श्री का अन्त कर दिया था। ऐसी अवस्था में उन्हें सन्तोष से ही शान्ति मिल सकती थी, पर उनकी उच्च शिक्षा ने उन्हे जीवन को एक वृहत साम-क्षेत्र समझना सिखाया था। उनके सामने जिन महान् पुरुषो के आदर्श रखे गये थे उन्होने भी सघर्ष-नीति का आश्रय ले कर सफलता प्राप्त की थी। इसमें संदेह नहीं कि इस शिक्षा ने उन्हें लेख और बाणी में प्रवीण, तर्क में कुशल, व्यवहार में चतुर बना दिया था, पर उसके साथ ही उन्हें स्वार्थ और स्वहित का दास बना दिया था। यह वह शिक्षा न थीं जो अपने झोपड़ी का द्वार खुला रखने का अनुरोध करती है, जो दूसरों को खिला कर आप खाने की नीति सिखाती हैं। ज्ञानशंकर किसी को आश्रय देने की कल्पना भी न कर सकते थे जब तक अपना प्रासाद न बना ले, वह किसी को मुट्ठी भर अन्न भी न दे सकते थे, जब तक अपनी धान्यशाला को भर न ले।

सौभाग्य से उनका प्रासाद निमित हो चुका था। अब वह दूसरों को आश्रय देने