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प्रेमाश्रम


श्रद्धा ने कुछ जवाब न दिया। यह बात उसे लग गयी। एक क्षण तक चुपचाप बैठी रही। तब जाने के लिए उठी। प्रेमशंकर के मुंह से बात तो निकल गयी थी, पर अपनी कठोरता पर लज्जित थे। बोले--अगर ज्ञानशंकर कुछ आपत्ति करें तो?

श्रद्धा ने तिनक कर कहा--तो साफ-साफ क्यों नही कहते कि ज्ञानशंकर के डर से नहीं देता। अविकार, कर्तव्य और अमानत का आश्रय क्यों लेते हो?

प्रेमशंकर ने असम में पड़ कर कहा- डर की बात नहीं है। रुपयों के विषय में मुझे पूरा अधिकार है, लेकिन ज्ञानशंकर की अनुमति के बिना मैं उसे इस तरह खर्च नहीं करना चाहता।

श्रद्धा--तो एक चिट्ठी लिख कर पूछ लो। मुझे तो पूरा विश्वास है कि उन्हें कोई आपत्ति न होगी। अब वह ज्ञानशंकर नही हैं जो पैसे-पैसे पर जान देते थे।

प्रेमशंकर बाहर आ कर ज्ञानशंकर को पत्र लिखने बैठे। लेकिन फिर ख्याल आया कि उन्होंने अनुमति दे दी तो! अनुमति देने में उनकी क्या हानि है? तब मुझे विवश हो कर पये देने पड़ेंगे। यह रुपये न मेरे हैं, न माया के हैं, न ज्ञानशंकर के हैं। यह माया की शिक्षावृत्ति है। पत्र न लिखा! ज्वालासिंह के सामने यह समस्या पेश की। उन्होंने भी कुछ निश्चय न किया। डाक्टर इर्फानअली से परामर्श लेने की ठहरी। डॉक्टर साहब ने फैसला किया कि यह रकम माया की शिक्षा के सिवा और किती काम में नहीं खर्च की जा सकती।।

मायाशंकर ने यह फैसला सुना तो झुंझला उठा। जी में आया कि चलकर डाक्टर साहब से खूब बहश करूँ, पर इस कि कहीं वह इसे बेअदबी न समझें। क्यों न महाजन के पास जा कर वह सब रुपये माँग लूं? अभी नाबालिग हूँ, शायद उसे कुछ आपत्ति हो, लेकिन एक के दो देने पर तैयार हो जाऊँगा तो मान जायगा। लेकिन फिर शंका हुई कि चाचा साहब को मालूम हो गया तो मुंह से तो चाहे कुछ न कहै, पर मन में बहुत नाराज होंगे। विचारा इन्हीं दुश्चिन्ताओं में डूबा हुआ मलीन, उदास जा कर लेट रहा। सन्ध्या हो गयी पर कमरे से न निकला। डॉक्टर इर्फानअली ने पढ़ने के लिए। बुलाया। कहला भेजा, मेरे सिर में दर्द है। भोजन का समय अया। मित्र-भवन के और सब छात्र भोजन करने लगे। माया ने कहला भेजा, मेरे सिर में दर्द हैं। श्रद्धा बुलाने आयी। उसे देखते ही माया रो पड़ा।

श्रद्धा ने प्रेम है आँसू पोछ्ते हुए कहा- बेटा, चल कर थोड़ा सा खाना खा लो। सबेरे मैं फिर उनसे कहूँगी। डाक्टर इर्फानअली ने बात बिगाड़ दी, नहीं तो मैंने तो राजी कर लिया था।

माया–चाची, मेरी जाने की बिलकुल इच्छा नहीं है। (रो कर) तेजू और पदमु के प्राण मैंने लिये और अब मैं बाबा की कुछ मदद भी नहीं कर सकता। ऐसे जीने पर धिक्कार है।

श्रद्धा भी करुणावेग से विवश हो गयीं। अंचल ने माया के आँसू पोछती थी और स्वयं रोनी थी।