पृष्ठ:प्रेमाश्रम.pdf/३९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४२
प्रेमाश्रम


पैरगाड़ी पर सवार कहीं जाते देखा, तो कुछ न कह सके। ज्ञानशंकर के तेवर कुछ बदले हुए थे, आँखों में क्रोध झलक रहा था। प्रभाशंकर ने सोचा, इतने सवेरे यह कहाँ जा रहे हैं, अवश्य कुछ दाल में काला है। उन्होंने अपनी चिड़ियों के पिंजरे उतार दिए और दाने चुगाने लगे। पहाड़ी मैंने के हरिभजन का आनन्द उठाने में वह अपने को भूल जाया करते थे। इसके बाद स्नान करके रामायण का पाठ करने लगे। इतने में दस बज गये और कहार ने ज्ञानशंकर का पत्र ला कर उनके सामने रख दिया। उन्होंने तुरंत पत्र को उठा लिया और पढ़ने लगे। उनकी ईश-वेदना में व्यावहारिक कामों में कोई बाधा न पड़ती थीं। इस पत्र को पढ़ कर उनके शरीर में ज्वाला-सी लग गयी। उमका एक-एक शब्द चिंनगारी के समान हृदय पर लगता था। ज्ञानशंकर कितना भी दम्भी और ईर्ष्यालु है, इसका कुछ अनुमान हुआ। ज्ञात हुआ कि बड़ी बहू ने उसकी प्रकृति के विषय में जो आलोचना की थी वह सर्वथा सत्य थी। यह दुस्साहस! यह पत्र उमकी कलम में कैसे निकला! उसने मेरी गर्दन पर तलवार भी चला दी होती तो भी मैं इतना द्वेष न कर सकता। इतना योग्य और चतुर होने पर भी उसका हृदय इतना संकीर्ण है। विद्या का फल तो यह होना चाहिए कि मनुष्य में धैर्य और संतोष का विकास हो, ममत्व का दमन हो, हृदय उदार हो, न कि स्वार्थपरता, क्षुद्रता और शीलहीनता का भूत सिर चढ़ जाय। लड़कों ने शरारत की थी, डांट देते, झगड़ा मिटता। क्यों जरा-सी बात को बतंगड़ बनाया। अ स्पष्ट विदित हो रहा हैं कि साथ निर्वाह न होगा। मैं कहाँ तक दबा करूंगा, मैं कहाँ तक सिर झुकाऊँगा? खैर, उनकी जैसी इच्छा हो करें। मैं अपनी ओर से ऐसी कोई बात न करूंगा जिससे मेरी पीठ में धूल लगे। मकान बाँटने को कहते हैं। इससे बड़ा अनर्थ और क्या होगा? घर का पर्दा खुल जायेगा, सम्बन्धियों में घर-घर चर्चा होगी! हाय दुर्भाग्य। घर में दो चूल्हे जलेंगे! जो बात कभी न हुई थी, वह अब होगी। मेरे और मेरे प्रिय भाई के पुत्र के बीच केवल पड़ोसी का नाता रह जायगा। वह जो जीवन पर्यन्त साथ रहे, साथ खेले, साथ रोये, साथ हँसे, अब अलग हो जायेंगे। किन्तु इसके सिवा और उपाय ही क्या है। लिख दूं कि तुम जैसे चाहो धर को बाँट लो? क्यों कहूँ कि मैं यह मकान लूंगा, यह कोठा लूंगा। जब अलग ही होते हैं तो जहाँ तक हो सके आपस में मनमुटाव न होने दें। यह सोच लाला प्रभाशंकर ने ज्ञानशंकर को उत्तर दिया। उन्हें अब भी आशा थी कि मेरे उत्तर की नम्रता का ज्ञानशंकर पर अवश्य कुछ न कुछ असर होगा। क्या आश्चर्य है कि अलग होने का विचार ही उसके दिल में अलग हो जाय! यह विचार उन्होंने पत्र का उत्तर लिख दिया और जवाब का इंतजार करने लगा।


ग्यारह बजे तक कोई जवाब न आया। दयाशंकर कचहरी जाने लगे। बड़ी बहू आ कर बोली, लल्लू के साथ तुम भी चले जाओ। आज तजबीज सुनाई जायगी। जाने कैसी पड़े, कैसी न पड़े। प्रभाशंकर ने अपने जीवन में कभी कचहरी के अंदर कदम न रहा था। दोनों भाइयों की प्रतिज्ञा थी कि चाहे कुछ भी क्यों न हो, कचहरी का मुँह न देखेंगे। यद्यपि इस प्रतिज्ञा के कारण उन्हें कितनी ही बार हानियाँ उठानी पड़ी।