पृष्ठ:प्रेमाश्रम.pdf/३९१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३९६
प्रेमाश्रम


प्रेमशंकर ने सन्दिग्ध भाव से कहा—माया और तुम बिना रुपये दिलाये न मानोगे, जैसी तुम्हारी इच्छा। तुम्हारी युक्ति में न्याय है, इसे मैं मानता हूँ, पर आत्मा सन्तुष्ट नहीं होती। मैं इस वक्त रुपये दिये देता हूँ पर इसे ऋण समझ कर सदैव अदा करने की चैप्टा करता रहूँगा।



६४

लाला प्रभाशंकर को रुपये मिले तो वह रोये। गाँव तो बच गया, पर उसे कौन बिलसेगा? दयाशंकर का चित्त फिर घर से उचाट हो चला था। साधु-सन्तो के सत्सग के प्रेमी हो गये थे। दिन-दिन वैराग्य में रत होते जाते थे।

इधर मायाशंकर की यूरोप-यात्रा पर ज्ञानशंकर राजी न हुए। उनके विचारों में अभी यात्रा से माया को यथेप्ट लाभ न पहुँच सकता था। उससे यह कही उत्तम था कि वह अपने इलाको का दौरा करे। उसके बाद हिन्दुस्तान के मुख्य-मुख्य स्थानों को देखे, अतएव चैत के महीने में मायाशंकर गोरखपुर चला गया और दो महीने तक अपने इलाके की सैर करने के बाद लखनऊ जा पहुँचा। दो महीने तक वहाँ भी अपने गांवों का दौरा करता रहा। प्रतिदिन जो कुछ देखता अपनी डायरी में लिख लेता। कृषको की दशा का खूब अध्ययन किया। दोनो इलाकों के किसान उसके प्रजा-प्रेम, विनय और शिष्टता पर मुग्ध हो गये। उसने उनके दिलो में घर कर लिया। भय की जगह प्रेम का विकास हो गया। लोग उसे अपना उच्च हितैषी समझने लगे। उसके पास आ कर अपनी विपत्ति-कथा सुनाते। उसे उनकी वास्तविक दशा का ऐसा परिचय। किसी अन्य रीति से न मिले सकता था। चारो तरफ तबाही छायी हुई थी। ऐसा विरला ही कोई घर था जिसमे धातु के बर्तन दिखाई देते हो। कितने घरो में लोहे के तवे तक न थे। मिट्टी के बर्तनो को छोड़ कर झोपड़े में और कुछ दिखायी न देता था। न ओढ़ना, न बिछौना, यहाँ तक कि बहुत से घरो में खाटे तक न थी और वह घर ही क्या थे। एक-एक, दो-दो छोटी कोठरियों थी। एक मनुष्यों के लिए, एक पशुओं के लिए। उसी एक कोठरी में खाना, सोना, बैठना सब कुछ होता था। बस्तियाँ इतनी धनी थी कि गाँव में खुली हुई जगह दिखायी ही नही देती थी। किसी के द्वार पर सहन नही, हवा और प्रकाश को शहरो की घनी बस्तियों में भी इतना अभाव न होगा। जो किसान बहुत सम्पन्न समझे जाते थे उनके बदन पर साबित कपडे न थे, उन्हें भी एक जून चबेना पर ही काटना पड़ता था। वह भी ऋण के बोझ से दबे हुए थे। अच्छे जानवरो के देखने को आँखे तरस जाती थी। जहाँ देखो छोटे-छोटे मरियल, दुर्बल बैल दिखायी देते और खेत में रेगते और चरनियो पर औधते थे। कितने ही ऐसे गाँव थे जहाँ दूध तक न मयस्सर होता था। इस व्यापक दरिद्रता और दीनता को देख कर माया का कोमल हृदय तड़प जाता था। वह स्वभाव से ही भावुके था-बहुत नम्र, उदार और सहृदय। शिक्षा और संगीत ने इन भावो को और भी चमका दिया थी। प्रेमाश्रम में नित्य सेवा और प्रजा-हित की चर्चा रहती थी। माया का सरल हृदय