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प्रेमाश्रम

उसी रंग में रंग गया। वह इन दृश्यों से दुखित हो कर प्रेमशंकर को बार-बार पत्र लिखता, अपनी अनुभूत घटनाओं का उल्लेख करता और इस कष्ट को निवारण करने का उपाय पूछता, किन्तु प्रेमशंकर या तो उनका कुछ उत्तर ही न देते या किसानों की। मूर्खता, आलस्य आदि दुस्वभावो की गाथा ले बैठते।

माया तो अपने इलाकों की सैर कर रहा था, इधर स्थानीय राजसभा के सदस्यों का चुनाव होने लगा। ज्ञानशंकर इस उम्मीन्य पद के पुराने अभिलाषी थे। बड़े उत्साह से मैदान में उतरे, यद्यपि यह ताल्लुकेदार सभा के मन्त्री थे, पर ताल्लुकेदारो की सहायता पर उन्हें भरोसा न था। कई बड़े-बड़े ताल्लुकेदार अपने गाँव के प्रतिनिधि बनने के लिए तत्पर थे। उनके सामने ज्ञानशंकर को अपनी सफलता की कोई आशा न थी। इसलिए उन्होने गोरखपुर के किसानों की ओर से खड़ा होने का निश्चय किया। वहीं साम इतना भीषण न था। उनके गोइन्दे देहात मे धूम-घूम कर उनका गुणगान करने लगे। बाबू साहब कितने दयालु, ईश्वरभक्त है, उन्हे चुन कर तुम कृतार्थ हो जाओगे। वह राजसभा में तुम्हारी उन्नति और उपकार के लिए जान लड़ा देगे, लगान घटवायेंगे, प्रत्येक गाँव में गोचर भूमि की व्यवस्था करेगें, नजराने उठवा देगे, इजाफा लगान का विरोध करेंगे और इखराज को समूल उखाड़ देगे। सारे प्रान्त में धूम मच हुई थी। जैसे सहालग के दिनों में ढोल और नगाड़ो का नाद गुंजने लगता है उसी भाँति इस समय जिधर देखिए जाति प्रेम की चर्चा सुनायी देती थी। डाक्टर इर्फानअली बनारस महाविद्यालय की तरफ से खड़े हुए। बाबू प्रियनाथ ने बनारस म्युनिसिपल्टी का दामन पकड़ा। ज्वालासिंह इटावे के रईस थे, उन्होने इटावे के कृषको को आश्रय लिया। सैयद ईजाद हुसेन को भी जोश आया। वह मुसलिम स्वत्व की रक्षा के लिए उठ खड़े हुए। प्रेमशंकर इस क्षेत्र में न आना चाहते थे, पर भवानीसिंह, बलराज और कादिर खाँ ने बनारस के कृषको पर उनका मन्त्र चलाना शुरू किया। तीन-चार महीनों तक बाजार खूव गर्म रहा, छापेखाने को ट्रैक्टो के छापने से सिर उठाने का अवकाश न मिलता था। कही दावतें होती थी, कही नाटक दिखाये जाते थे। प्रत्येक उम्मीदवार अपनी-अपनी ढोल पीट रहा था मानो संसार के कल्याण का उसी ने बीड़ा उठाया है।

अन्त में चुनाव का दिन आ पहुँचा। उस दिन नेताओं का सदुत्साह, उनकी तत्परता, उनकी शीलता और विनय दर्शनीय थी और राय देनेवालो का तो मानो सौभाग्य-सूर्य उदय हो गया था। गेहनभोग तथा मेवे खाते थे और मोटरो पर सैर करते थे। सुबह से पहर रात तक रायो की चिट्ठियाँ पढ़ी जाती रही।

इसके बाद के सात दिन वही बेचैनी के दिन थे। ज्यों-ज्यों करके कटे। आठवें दिन राजपत्र में नतीजे निकल गये। आज कितने ही घर मे घी के चिराग जले, कितनो ने मातम मनाया। ज्ञानशंकर ने मैदान मार लिया, लेकिन प्रेमाश्रम निवासियों को जो सफलता प्राप्त हुई वह आश्चर्यजनक थी, इस अखाड़े के सभी योद्धा विजय-पताको फहराते हुए निकले। सबसे बड़ी फतह प्रेमशंकर की थी। वह बिना उद्योग और इच्छा के इस उच्चासन पर पहुँच गये थे। ज्ञानशंकर ने यह खबर सुनी तो उनका उत्साह