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प्रेमाश्रम


एक दिन वह इसी दुविधा में बैठे हुए थे कि मायाशंकर एक पत्र लिये हुए आया और बोला-- देखिए, बाबू दीपक सिंह सभा में किनना घोर अनर्थ करने का प्रयत्न कर रहे है? वह सभा में इस आशय का प्रस्ताव लानेवाले है कि जमींदारो को असामियों से लगान वसूल करने के लिए ऐसे अधिकार मिलने चाहिए कि वे अपनी इच्छा से जिम असामी को चाहे बेदखल कर दें। उनके विचार में जमींदारो को यह अधिकार मिलने से रुपये वसूल करने में बड़ी सुविधा हो जायगी। प्रेमशकर ने उदासीन भाव से कहा- मैं यह पत्र देख चुका हूँ।

माया–पर आपने इसका कुछ उत्तर नहीं दिया?

प्रेमशकर ने आकाश की ओर ताकते हुए कहा- अभी तो नही दिया।

माया---आप समझते हैं कि सभा में प्रस्ताव स्वीकृत हो जायगा।

प्रेम–हाँ, सम्भव है।

माया–तब तो जमींदार लोग असामियों को कुचल ही डालेंगे।

प्रेम-हाँ, और क्या?

माया--अभी से इस आन्दोलन की जड़ काट देनी चाहिए। आप इस पत्र का जवाब दे दे तो बाबू दीपकसिंह को अपना प्रस्ताव सभा में पेश करने का साहस न हो।

प्रेम-ज्ञानाकर क्या कहेगे।

माया---मैं जहाँ तक समझता हूँ, वह इस प्रस्ताव का समर्थन न करेंगे।

प्रेम-हाँ, मुझे भी ऐसी आशा है।

मायाशंकर चचा की बातो से उनकी चित्त-वृत्ति को ताड़ गये।

वह जब से अपने इलाके का दौरा करके लौटा था, अक्मर कृषको की सुदशा के उपाय सोचा करता। इस विषय की कई किताबे पढ़ी थी और डाक्टर इर्फानअली से भी जिज्ञासा करता रहता था। प्रेमशंकर को असमंजस में देख कर उसे बहुत खेद हुआ। बहू उनसे तो और कुछ न कह सका, पर उन पत्र को प्रतिवाद करने के लिए उसका मन अधीर हो गया। आज तक उसने कभी समाचार-पत्रो के लिए कोई लेख न लिखा था। डरता था, लिखते बने या न बने, सम्पादक छापे या न छापे। दो-तीन दिन वह इसी आगा-पीछा में पड़ी रहा। अन्त में उसने उत्तर लिखा और कुछ सकुचाते, कुछ डरने डाक्टर इर्फानअली को दिखाने ले गया। डाक्टर महोदय ने लेख पढ़ा तो, चकित हो कर पूछा---यह सब तुम्ही ने लिखा है?

माया—जी हां, लिखा तो है, पर बना नहीं।

इर्फान-बाह इससे अच्छा तो मैं भी नहीं लिख सकता है यह सिफत तुम्हे बाबू ज्ञानशंकर से विरासत में मिली है।

माया- तो भेज दें, छप जायेगा?

इफन छपेगा क्यों नहीं? मैं खुद भेज देता हूँ।

प्रेमशंकर रोज पत्रों को ध्यान से देखते कि दीपकसिंह के पत्र का किसी ने उत्तर दिया या नहीं, पर आठ-दस दिन बीत गये और आशा न पूरी हुई। कई बार उनकी