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प्रेमाश्रम

साफा और सादे स्वेतवस्त्र उनकी प्रतिभा को और भी चमकाते थे। रईस लोग कुर्सियों पर बैठे। देहाती मेहमानों के लिए एक तरफ उज्ज्वल फर्भ विछा हुआ था। प्रेमशंकर ने उन्हें वहाँ पहले से ही बिठा रखा था। अब लोगो के यथास्थान बैठ जाने के बाद मायाशकर, रेशम और रलो से चमकता हुआ दीवानखाने से निकला और मित्र-भवन के छात्री के साथ पंडाल में आया। बन्दुक की मलामी हुई, ब्राह्मण-समाज ने मगलाचरण गान शुरू किया। सब लोगो ने खड़े हो कर उसका अभिवादन किया। महाराज गुरुदत्तराय ने नीचे उतर कर उसे आलिंगन किया और उसे ला कर उसके सिंहासन पर बैठा दिया। मायाशंकर के मुख-मण्डल पर इस समय हर्ष या उल्लास का कोई चिह्न न था। वह चिंता और विचार में डूबा हुआ नजर आता था। विवाह के समय मंडप के नीचे वर की जो दशा होती है वही दशा इस समय उसकी थी। इसके ऊपर कितना उत्तरदायित्व का भार रखा जाता था। आज से उसे कितने प्राणियों के पालन का, कल्याण का, रक्षा का कर्तव्य पालन करना पड़ेगा, सौते-जागते, उठते-बैठते न्याय और धर्म पर निगाह रखनी पड़ेगी, उसके कर्मचारी प्रजा पर जो-जो अत्याचार करेंगे उन सबका दोष उसके सिर पर होगा। दोनों की हाय और दुर्बल के आँसुओं से उसे कितना सशक रहना पड़ेगा। इन आंतरिक भावों के अतिरिक्त ऐसी भद्र मडली के सामने खड़े होने और हजारो नेत्री के केन्द्र बनने का संकोच कुछ कम अशान्तिकारक न था।

कार्यवाही आरम्भ हुई। मगलगान के बाद पंडित श्रीनिवास वेदाचार्य ने ईश्वरप्रार्थना की। तब सैयद ईजाद हुसेन ने अपना जौरदार कसीदा पढ़ा जिसकी श्रोता ने खूब प्रशंसा की। उनके बैठते ही यतीमखाने के बालको ने गवर्नर महोदय को गुणानुवाद गाया। उनके स्वर लालित्य पर लोग मुग्ध हो गये। तब बाबू ज्ञानशंकर उठे और अपना प्रभावशाली अभिनदन-पत्र पढ़ सुनाया। उसकी भाषा और भाव दोनों ही निर्दोष थे। डाक्टर इर्फानअली ने हिंदुस्तानी भाषा में उसका अनुवाद किया। तब महाराज साहब उसका उत्तर देने के लिए खड़े हुए। उन्होंने पहले ज्ञानशंकर और और अन्य रईसो को धन्यवाद दिया, दो-चार मार्मिक वाक्यो में ज्ञानशकर की कार्यपटुता और योग्यता की प्रशंसा की, राय कमालानद और रानी गायत्री के सुयश और सुकीर्ति, प्रजा-रंजन और आत्मोत्सर्ग का उल्लेख किया। तब माया शंकर को संबोधित करके उसके सौभाग्य पर हर्ष प्रकट किया। वक्तृता के शेष भाग भी मायाशंकर की कर्तव्य और सुनीति का उपदेश दिया, अन्त में आशा प्रकट की कि वह अपने देश, जाति और राज्य का भक्त और समाज का भूषण बनेगा।

तब मायाशंकर उत्तर देने के लिए उठा। उसके पैर काँप रहे थे और छाती में जोर की धड़कन हो रही थी। उसे भय होता था कि कही मैं घबरा कर बैठ न जाऊँ। उसका दिल बैठा जाता था। ज्ञानशंकर ने पहले से ही उसे तैयार कर रखा था। उसर लिख कर याद करा दिया था, पर मायाशंकर के मन में कुछ और ही भाव थे। उसने अपने विचारों का जो क्रम स्थिर कर रखा था वह छिन्न-भिन्न हो गया था। एक क्षण तक वह हतबुद्धि बना अपने विचारों को संभालता रहा, कैसे शुरू करू, क्या कहूँ?