पृष्ठ:प्रेमाश्रम.pdf/३९८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४०३
प्रेमाश्रम

प्रेमशंकर सामने बैठे हुए उसके संकट पर अधीर हो रहे थे। सहसा मायाशंकर की निगाह उन पर पड़ गयी। इस निगाह ने उसपर वही काम किया जो रुकी हुई गाड़ी पर ललकार करती है। उसकी वाणी आग्रत हो गयी। ईश्वर-प्रार्थना और उपस्थित महानुभावों को धन्यवाद देने के बाद बोला -

महाराज साहब, मैं उन अमूल्य उपदेशो के लिए अन्त करण से आपका अनुगृहीत हैं जो आपने मेरे आनेवाले कर्तव्यों के विषय में प्रदान किये है। और आपको विश्वास दिलाता हूँ कि मैं यथासाध्य उन्हे कार्य में परिणत करूंगा। महोदय ने कहा है कि ताल्लुकेदार अपनी प्रजा का मित्र, गुरु और सहायक है। मैं बड़ी विनय के साथ निवेदन करूंगा कि वह इतना ही नहीं, कुछ और भी है, वह अपने प्रजा का सेवक भी है। यही उसके अस्तित्व का उद्देश्य और हेतु है अन्यथा संसार में उसकी कोई जरूरत ने थी, उसके बिना समाज के सगठन में कोई बाधा न पड़ती। वह इसलिए नहीं है। कि प्रजा के पसीने की कमाई को विलास और विषय-भोग में उहायें, उनके टूटे-फूटे झोपडो के सामने अपना ऊँचा महल बड़ा करे, उनकी नम्रता को अपने रत्नजटित बस्त्रो से अपमानित करे, उनकी संतोषमय सरलता को अपने पार्थिव वैभव से लज्जित करें, अपनी स्वाद-लिप्स से उनकी क्षुधा-पीद्धा का उपहास करे। अपने स्वत्वो पर जान देता हो; पर अपने कर्तव्य से अनभिज्ञ हो। ऐसे निरङ्कुश प्राणियों से प्रजा की जितनी जल्द मुक्ति हो, उनका भार प्रज्ञा के सिर में जितनी ही जल्द दूर हो उतना ही अच्छा हो।

विज्ञ सज्जनो, मुझे यह मिथ्याभिमान नहीं है कि मैं इन इलाको का मालिक हूँ। पूर्व संस्कार और सौभाग्य ने मुझे ऐसी पवित्र, उन्नत, दिव्य आत्माओ की संत्सगति से उपकृत होने का अवसर दिया है कि अगर यह भ्रम, यह महत्त्व एक क्षण के लिए मेरे मन में आता तो मैं अपने को अघम और अक्षम्य समझता। भूमि या तो ईश्वर की है जिसने इसकी सृष्टि की या किसान की जो ईश्वरीय इच्छा के अनुसार इसका उपयोग करता है। राजा देश की रक्षा करता है इसलिए उसे किसानो से कर लेने का अधिकार है, चाहे प्रत्यक्ष रूप में ले या कोई इससे कम आपत्तिजनक व्यवस्था करे। अगर किसी अन्य वर्ग या श्रेणी को मीरास, मिल्कियत, जायदाद, अधिकार के नाम पर किसानों को अपना भौग्य-पदार्थ बनाने की स्वच्छन्दता दी जाती है तो इस प्रथा को वर्तमान समाज-व्यवस्था की झलक चिह्न समझना चाहिए।

ज्ञानशंकर के मुँह पर हवाइयां उड़ने लगी। गवर्नर साहब ने भी अनिच्छा भाव से पहलू बदला, रईसो इशारे होने लगे। लोग चकित थे कि इन बातों का अभिप्राय क्या है? प्रेमशंकर तो मारे शर्म के गड़े जाते थे। हाँ, डाक्टर इर्फानअली और ज्वालासिंह के चेहरे खिले पड़ते थे।

मायाशंकर ने जरा दम ले कर फिर कहा -

मुझे भय है कि मेरी बाते कही तो अनुपयुक्त और समय विरुद्ध और कही क्रांतिकारी और विद्रोहमय समझी जायेंगी, लेकिन यह भय मुझे उन विचारों के प्रकट करने