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प्रेमाश्रम

और अपने भाग्य को सराहते थे। प्रेमशंकर सिर झुकाये चुपचाप खड़े थे, मानो किसी गहरे विचार में डूबे हुए हो, लेकिन उनके अन्य मित्र खुशी से फूले न समाते थे। उनकी सगवं आँखे कह रही थी कि यह हमारी संगति और शिक्षा का फल है, हमको भी इसका कुछ श्रेय मिलना चाहिए। रईसो के प्राण संकट में पड़े हुए थे। आश्चर्य से एक दूसरे का मुँह ताकते थे, मानो अपने कानो और आँखो पर विश्वास न आता हो। कई विद्वान इस प्रश्न पर अपने विचार प्रकट करने के लिए आतुर हो रहे थे, पर यहाँ उसका अवसर न था।

गवर्नर महोदय बड़े असमंजस में पड़े हुए थे इस कथन का किन शब्दो में उत्तर दें? वह दिल मे मायाशंकर के महान् त्याग की प्रशंसा कर रहे थे, पर उसे प्रकट करते हुए उन्हे भय होता था कि अन्य ताल्लुकेदारो और रईसो को बुरा न लगे। इसके साथ ही नृप रहना मायाशंकर के इस महान् यश का अपमान करना था। उन्हें मायाशंकर से वह प्रेममय श्रद्धा हो गयी थी, जो पुनीत आत्माओं का भाग है। खडे हो कर मृदु स्वर में बोले

वाबू मायाशंकर। यद्यपि हममें से अधिकाश सज्जन उन सिद्धान्तो के कायल न होगे जिससे प्रेरित हो कर आपने यह अलौकिक संतोष व्रत धारण किया है, पर जो पुरुष सर्वथा हृदय-शून्य नहीं है वह अवश्य आते देव तुल्य समझेगा। सम्भव है कि जीवन-पर्यन्त सुख भोगने के बाद किसी को वैराग्य हो जाये, किन्तु जिस युवक ने अभी प्रभुत्व और वैभव के मनोहर, सुखद उपवन में प्रवेश किया उसका यह त्याग आश्चर्यजनक हैं। पर यदि बाबू साहब को बुरा न लगे तो मैं कहूँगा कि समाज की कोई व्यवस्था केवल सिद्धान्तों के आधार पर निर्दोष नहीं हो सकती, चाहे वे सिद्धान्त कितने ही उच्च और पवित्र हो। उसकी उन्नति मानव चरित्र के अधीन है। एकाधिपतियो में देवता हो गये हैं और प्रजावादियों में भयंकर राक्षस। आप जैसे उदार, विवेकशील, दयालु स्वामी की जात से प्रजा का कितना उपकार हो सकता था। आप उनके पथदर्शक बन सकते थे। अब वह प्रजा हित-साधनो से वंचित हो जायगी, लेकिन मैं इन कुत्सित विचारों से आपको भ्रम में नहीं डालना चाहता। शुभ कार्य सदैव ईश्वर की ओर से होते है। यह भी ईश्वरीय इच्छा है और हमें आशा करनी चाहिए कि इसका फल अनुकूल होगा। मैं परमात्मा से प्रार्थना करता हूँ कि वह इन न जमीदारो का कल्याण करे और आपकी कीर्ति अमर हो।

इधर तो मित्र-भवन की महल नाटक खेल रही थी, मस्ताने की ताने और प्रियनाथ की सरोद-ध्वनि रग-भवन मे गूंज रही थी, उधर बाबू ज्ञानशंकर नैराश्य के उन्मत्त आवेश मे गंगातट की ओर लपके चले जाते थे जैसे कोई टूटी हुई नौका जल-तरगो में बहती चली जाती हो। आज प्रारब्ध ने उन्हें परास्त कर दिया। अब तक उन्होने सदैव प्रारब्ध पर विजय पायी थी। आज पासा पलट गया और ऐसा पला कि सँभलने की कोई आशा न थी। अभी एक क्षण पहले उनका भाग्य-भवन जगमगाते हुए दीपको से प्रदीप्त हो रहा था, पर वायु के एक प्रचंड झौके ने उन दीपको को बुझा दिया।