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प्रेमाश्रम

अब उनके चारों तरफ गहरा, घना, भयावह अँधेरा था जहाँ कुछ न सूझता था।

वह सोचते चले जाते थे, क्या इसी उद्देश्य के लिए मैंने अपना जीवन समर्पण किया? क्या अपनी नाव इसी लिए बोझी थी कि वह जलमग्न हो जाय?

हा वैभव लालमा! तेरी बलि वेदी पर मैंने क्या नहीं चढ़ाया? अपना धर्म, अपनी आत्मा तक भेंट कर दी। हां! तेरे भाड़ में मैंने क्यों नहीं झोका? अपना मन, वचन, कर्म सब कुछ आहुति कर दी। क्या इसी लिए कि कालिमा के सिवा और कुछ हाथ न लगे।

मायाशंकर का कसूर नहीं, प्रेमशंकर को दोष नहीं, यह सब मेरे प्रारब्ध की कूटलीला है। मैं समझता था मैं स्वयं अपना विधाता हूँ। विद्वानो ने भी ऐसा ही कहा है, पर आज मालूम हुआ कि मैं इसके हाथो का खिलौना था। उसके इशारो पर नाचनेवाली कठपुतली था। जैसे बिल्लीं चूहे को खेलाती हैं, जैसे मछुआ मछली को खेलता है उसी भाँति इसने मुझे अभी तक खेलाया। कभी पंजे में धीरे से पकड़ लेता था, कभी छोड़ देता था। जरा देर के लिए उसके पंजे में छूट कर मैं सोचता था उस पर विजय पायी, पर आज उस खेल का अन्त हो गया, बिल्ली ने गर्दन दबा दी, मछुए में बसी खीच ली। मनुष्य कितना दीन, कितना परवश हैं। भावी कितनी प्रबल, कितनी कठोर।

जो तिमंजिला भवन मैंने एक युग में अविश्रान्त उद्योग से खड़ा किया वह क्षणमात्र में इस भाँति भूमिस्थ हो गया मानो उसका अस्तित्व न था, मका चिह्न तक नहीं दिखायी देता। क्या वह विशाल अट्टालिका भावी की केवल माया रचना थी?

हाँ। जीवन कितना निरर्थक सिद्ध हुआ। विषय-लिप्सा, तूने मुझे कहीं का न रहा। मैं आँख तेज करके तैरे पीछे-पीछे चला और तूने मुझे इस घातक अँधेर में डाल दिया।

मैं अब किसी को मुँह दिखाने योग्य नही रही। सम्पत्ति, मान, अधिकार किसी का शौक नहीं। इसके बिना भी आदमी मुली रह सकता है, बल्कि सच पूछो तो सुन्छ इनसे मुक्त रहने में ही है। लोक यह है कि मैं अल्पाश में भी इस यज्ञ का भागी नही बन सकता। लोग इसे मेरे विषय-प्रेम की यन्त्रणा समझेगें। कहेगे कि बेटे ने बाप का कैसा मान-मर्दन किया, कैसी फटकार बतायी? यह व्यंग, यह अपमान कौन सहेगा? हा! मुझे पहले से इन अन्त का ज्ञान हो जाता तो आज मैं पूज्य समझा जाता, त्यागी पुत्र का वर्मज्ञ पिता कहलाने का गौरव प्राप्त करता। प्रारब्ध ने कैसा गुप्ताघात किया। अब क्यों जिन्दा हूँ। इसलिए कि तू मेरी दुर्गति और उपहास पर खुश हो, मेरी प्राणपीड़ा पर तालियाँ बजाये! नही, अभी इतना लज्जाहीन, इतना बेहया नही हूँ।

हा! विद्या! मैंने तेरे साथ कितना अत्याचार किया। तू सती थी, मैंने तुझे पैरो तले रौंदा। मेरी बुद्धि कितनी भ्रष्ट हो गयी थी। देवी, इस पतित आत्मा पर दया कर।

इन्हीं दुःखमय भावो में डूबे हुए ज्ञानशंकर नदी के किनारे आ पहुँचे। घाटो पर इधर-उधर साँई बैठे हुए थे। नदी को मलिन, मध्यम स्वर नीरवता को और भी नीरव बना रहा था।